अपना देश अद्भुत है. यहां जितनी प्राकृतिक विविधता है उतनी विविधता संभवतः दुनिया के किसी भी कोने में नहीं मिलती. देखिए न, एक तरफ गुजरात के गिर के शेर हैं तो दूसरी तरफ सुंदरबन के शेर. कहने को तो दोनों शेर हैं लेकिन सुंदरबन के शेर पानी में तैराकी भी करते हैं. इसी तरह राजस्थान के थार के मरुस्थल में जनजीवन के लिए ऊंट सबसे उपयोगी जानवर होते हैं. ये न्यूनतम पानी में महीनों जीवित रहने वाले जीव हैं. लेकिन, दूसरी तरफ गुजरात का कच्छ इलाका है. यहां के ऊंट थार के ऊंटों से बिल्कुल अलग हैं. ये समंदर में डुबकी लगाते हैं और मीलों की दूरी तैरकर पार करते हैं.
कच्छ .. गुजरात
कच्छ एक बेहद खूबसूरत क्षेत्र है. यहां की धरती में कई हैरान कर देने वाली चीजें संग्रहित हैं. यह अपनी विभिन्न कलाओं से देश-विदेश के लोगों को आकर्षित करता है. इस क्षेत्र की जमीन पर कई अद्भुत जीव भी हैं. कच्छ में दो प्रकार के ऊंट पाए जाते हैं, कच्छी और खाराई. खाराई नस्ल का ऊंट कई मायनों में विशिष्ट है. क्योंकि, यह ऊंट रेगिस्तान में नहीं बल्कि पानी में जाकर अपना भोजन लेता है. यह समुद्र पार कर सकती है. ऊंट की इस प्रजाति को राष्ट्रीय मान्यता भी मिल चुकी है.
खाराई ऊंट कच्छ के तटीय गांवों में पाया जाते हैं. क्योंकि, इस ऊंट का मुख्य भोजन चेर नामक पौधा है जो समुद्र तट पर पाया जाता है. समुद्र में जाना और वहां की वनस्पतियों को खाना इस खाराई ऊंट की खासियत है. खाराई ऊंट अकेले ही समुद्र में डेढ़ से दो किलोमीटर भीतर तक चले जाते हैं. ये भोजन के लिए चेरिया (एक तरह की वनस्पति) के जंगलों में चले जाते हैं. कच्छ में खाराई ऊंट भचाऊ तालुका के चिराई से लेकर वोंध, जंगी, अंबलियारा और सूरजबाड़ी तक समुद्री खाड़ी क्षेत्र में पाए जाते हैं. रबारी और जत समुदाय के लोग इसकी देखभाल पशुपालन के रूप में करते हैं. इस प्रजाति का मुख्य भोजन चेरिया नामक पेड़ है, जो समुद्र में उगता है.
वर्ष 2012 में खाराई ऊंटों की संख्या 4,000 थी. कच्छ में इसकी संख्या अब घटकर मात्र 2,000 रह गई है, जो बहुत कम बताई जा रही है. सहजीवन संस्था के रमेशभाई भट्टी के अनुसार खाराई ऊंटों की घटती संख्या का मुख्य कारण उनके खाने के लिए चेर वनस्पति का काटना है. इस प्रयास के लिए सहजीवन संस्था और कच्छ कैमल ब्रीडर्स एसोसिएशन कई वर्षों से इसके प्रजनन और संरक्षण के लिए विभिन्न कार्य और प्रयास कर रहे हैं.
कच्छ के मालधारी एसोसिएशन को भी ऊंट पालन के लिए कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. साथ ही उन्होंने हाल की घोषणा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सुरक्षा कारणों से समुद्र तट पर इन ऊंटों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. लेकिन असली ऊंट इसी बेट पर अपने खुराक की खोज में जाते हैं.
इन इलाकों में ऊंटनी के दूध का भी ठीकठाक उत्पादन होता है. इस दूध से आइसक्रीम, चॉकलेट और अन्य उत्पाद भी बनाए जाते हैं. इस दूध को पीने के कई फायदे होते हैं. इस दूध को पीने से कई बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है. देश में इस ऊंटनी के दूध की भारी मांग है. ऊंटनी का दूध सीधे पीने से मधुमेह, मिर्गी, पित्त, कैंसर, बच्चों की कई अन्य बीमारियों में फायदा होता है.
वर्षों पहले पशुपालक इन ऊंटों को चराने के लिए खंभात की खाड़ी तक जाते थे. 500 साल पहले सावला पीर नाम के एक फकीर की कहानी इससे जुडी हुई है. यदि उन्हें बचाना है तो कच्छ के रेगिस्तानी द्वीप में उन्हें जाने और पानी में तैरने की अनुमति दी जानी चाहिए. तभी वह जीवित रह सकता है. कच्छ के मालधारी एसोसिएशन को भी ऊंट पालन के लिए कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. रमेशभाई भट्टी ने अंत में कहा कि इस समस्या से बचने के लिए वन विभाग का सहयोग तो मिल रहा है, लेकिन अभी भी जरूरी है कि सहानुभूति दिखाकर ऊंटों को खुले में चरने की इजाजत दी जाए.