समुद्र के पार बैठे कुछ सौ बेऔकात लोगों के साथ जंग क्यों छेड़ी जाए……..?

बड़े और पुराने खतरे दोबारा सिर उठा रहे हैं और पीढ़ियों से दफन प्रेत फिर उठ रहे हैं तो सेना को हटाना या कम करना कैसे सही ठहराया जा सकता है? हम पंजाब और सिखों की बात कर रहे हैं।

आप पूछ सकते हैं कि जंग के हालात आखिर कहां हैं? पंजाब खामोश है और शायद उत्तर भारत के किसी भी अन्य राज्य की तुलना में अधिक शांत है और कानून सम्मत ढंग से काम कर रहा है। कम से कम वहां हिंदी प्रदेशों से तो बेहतर ही हालात हैं। सिखों ने लोक सभा और राज्य विधान सभा के चुनावों में जमकर मतदान किया और ताकतवर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को खारिज कर दिया। उन्होंने आम आदमी पार्टी को चुना जो कांग्रेस या भाजपा से भी अधिक बाहरी है। फिर दिक्कत कहां है? चुनौती कहां है? हम किन गंभीर खतरों की बात कर रहे हैं? क्या हलचल मची है और जंग कहां है?

ARUN SINGH ((Editor)

सत्ता में होने या पूरी तरह नियंत्रण रखने पर बड़ी चुनौती यह होती है कि लोगों को लगने लगता है कि उन्हें कुछ करना चाहिए।

मामला तब ज्यादा पेचीदा हो जाता है, जब पवनचक्की ब्रिटिश कोलंबिया में हो। तब दुष्ट दानवों से लड़ रही सेना को वापस बुलाना पड़ता है क्योंकि जिन लोगों, जमीन और राजनीति पर ध्यान देने की आवश्यकता है वे सब यहीं हैं: अमृतसर में, जो दिल्ली से कुछ ही घंटों की दूरी पर है। वहां कोई जंग या झड़प नहीं हो रही है। वहां की आबादी नाखुश और हताश है, वह भारत छोड़ना चाहती है जो अब लगभग असंभव हो गया है।

अलगाववादी जो बयान देते हैं, उनकी परेड में जो अपमानजनक झांकियां निकाली जाती हैं या जो नारे, पोस्टर और असॉल्ट राइफल के साथ सेल्फी होती हैं, वे भी भारत की समस्या नहीं हैं। वैसे मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि हरदीप सिंह निज्जर बनाना रिपब्लिक वाली भगवा टी-शर्ट पहनकर क्या जताना चाह रहा है? इन सब में ज्यादा से ज्यादा कुछ हजार लोग शामिल हैं। अगर वे परेशानी का सबब हैं तो जहां रहते हैं, उन देशों के लिए हैं क्योंकि वे हथियारबंद हैं और उनकी अंडरवर्ल्ड की अपनी दुनिया है। महत्वपूर्ण बात है कि यह सब अमेरिका में नहीं केवल कनाडा में हो रहा है।

गुरपतवंत सिंह पन्नुन भारत की आंखों में सबसे ज्यादा खटकता है मगर वह सोच-समझकर बोलता है। बात करते समय वह वकालत की अपनी पढ़ाई का बढ़िया इस्तेमाल करता है। उसके होर्डिंग पर लिखा होता है, ‘भारत को खत्म कर दो।’ या ‘भारत को कुचल डालो।’ किंतु नीचे बारीक अक्षरों में लिखा हो, ‘गोली से नहीं वोट से।’ कनाडा में हालात अधिक बुरे हैं बिल्कुल ब्रिटेन की तरह। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दूसरे देशों में गड़बड़ कुछ कम है।

यह सब देखकर गुस्सा आ सकता है मगर क्या वे सब वाकई इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि हम अहम राजनियक संबंधों को ताक पर रखकर उनसे उलझें, वह भी तब जब हमारा पड़ोसी ऐसा है? खासकर उत्तरी पड़ोसी ऐसा है? एक समझदार महाशक्ति के पास अपनी दोस्ती और खतरों को आंकने तथा कोई भी कदम उठाने का सही समय भांपने की क्षमता होनी चाहिए।

किसी भी समय जो सबसे ज्यादा परेशान कर रहा हो, सबसे पहले उसी पर प्रतिक्रिया देना निरी मानवीय प्रकृति है। फिर भी राष्ट्रों, समाजों तथा निजी एवं व्यावसायिक जीवन के अनुभव हमें बताते हैं कि गहरी सांस ली जाए और गुस्से को शांत होने दिया जाए तो अगली सुबह हम खुद से ही पूछते हैं: क्या इतनी सी बात के लिए मैं जंग करने जा रहा था? या रिश्ता तोड़ने जा रहा था? नौकरी छोड़ने जा रहा था? किसी को नौकरी से निकालने जा रहा था?

ताकतवर लोग और राष्ट्र गुस्से को खुद पर हावी नहीं होने देते और गुस्से में कोई काम नहीं करते। शोरशराबा करने वाले इन अलगाववादियों में से कोई नहीं मानता कि कोई चमत्कार होगा और संप्रभु सिख देश बन जाएगा। इनमें से अधिकतर तो पंजाब में पंचायत चुनाव जीतने या 100 हथियारबंद लोगों को अपने साथ जुटा लेने की ताकत भी नहीं रखते।

उन्हें ऐसे लोग भी माना जा सकता है, जो कभी हमारी तरह भारतीय थे मगर अब उनमें से ज्यादातर कनाडाई हो गए हैं और पाकिस्तानियों से उनका बचा-खुचा पैसा खर्च करा रहे हैं। वे उसी पैसे पर जी रहे हैं। भारत और उसका मजबूत खुफिया तंत्र भी पाकिस्तान को इसी तरह जवाब दे सकता है और देता रहा है।

भारत, अमेरिका और यहां तक कि कनाडा भी देखेंगे कि समय के साथ उनके विवाद खत्म हो जाएंगे चाहे उनके तरीके अलग-अलग क्यों न हों। संप्रभु देशों खासकर जिनके बीच बहुत कुछ साझा हो, के रिश्ते अधिक समय तक टूटे नहीं रहते। अमेरिका और भारत पहले ही पन्नुन मामले को अलग रखकर आगे बढ़ चुके हैं। लेकिन यह तथ्य नहीं बदलेगा कि सिख प्रवासियों की बड़ी और प्रभावशाली आबादी दोनों देशों में रहती है। कनाडा में कई सीटों पर चुनाव के लिहाज से उनका बहुत महत्त्व है। यह तथ्य भी नहीं बदलेगा कि दोनों जगह इस कट्टर तबके को आईएसआई से रकम मिलती रहेगी।

इसी पखवाड़े में इंदिरा गांधी की 40वीं बरसी होगी और उनकी शहादत के साथ ही सिखों के नरसंहार को भी 40 साल पूरे हो जाएंगे। यह ऑपरेशन ब्लू स्टार की भी 40वीं बरसी है। भिंडरावाले के रहते हुए पंजाब में जो अशांति थी, उससे कहीं ज्यादा खूनखराबा उसने भिंडरावाले के बाद के एक दशक में देखा और तब जाकर वहां शांति कायम हुई। उसके बाद से तीन दशक तक पंजाब में पूरी तरह शांति रही है। मगर अब गुस्सा और हताशा पनप रहे हैं।

इसकी मूल वजह पंजाब की कमजोर होती आर्थिक स्थिति है। वहां यह धारणा भी गहराती जा रहती है कि राष्ट्रीय राजनीति और सत्ता में पंजाब का पुराना कद घट गया है। मेरा यह कहना अजीब लग सकता है क्योंकि कुछ ही दिन पहले एक सिख ने भारतीय वायु सेना की कमान संभाली है। लेकिन केंद्र की सत्ता अब पूरी तरह भाजपा के हाथ में है, जिसे सिख सबसे कम पसंद करते हैं। पंजाब में भाजपा के पास सिख नेता नहीं है और शिरोमणि अकाली दल ने 2020 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का साथ छोड़ दिया था।

अकाली दल के साथ रिश्ते खत्म करने की राजनीतिक वजह जो भी रही हो, यह कदम देश के हित में नहीं रहा। अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहते थे कि पंजाब में चुनौती है सिख और हिंदू विभाजन। इसका सही जवाब था सिखों और हिंदुओं के दलों यानी अकाली और भाजपा में गठबंधन। इस गठजोड़ के टूटते ही सब बिखर गया। अकाली अब वहां लोकप्रिय नहीं हैं और कट्‌टरपंथी उनके धार्मिक क्षेत्र में घुसपैठ कर रहे हैं। इसे पंजाब में ‘पंथिक’ कहा जाता है और पंथिक राजनीति में निर्वात खतरे की बात है।

और धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बात तो न ही करें। पंजाब में अगर कोई कहता है कि भाजपा हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है तो सिख राष्ट्र की मांग पर सवाल कैसे उठाया जाएगा? वैसे यह केवल कहने की बात है। अमृतपाल सिंह लोकतांत्रिक राजनीति में आ गए हैं और उनको बंदी बनाए जाने पर ज्यादा शोरगुल नहीं हुआ।

कठिन प्रश्न यह है कि सिख पंथ, उसके बड़े गुरुद्वारों, संसाधनों और संस्थाओं पर किसका नियंत्रण है? यह काम निर्वाचित संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी करती है, जिसके लिए केवल धर्मपालक सिख ही मतदान कर सकते हैं। आखिरी बार इसका चुनाव चुनाव 2011 में हुआ था और चुनाव के लिए पंजीकरण की अभी जारी प्रक्रिया में पात्र सिख मतदाताओं की संख्या आधी हो गई है क्योंकि धार्मिक सिख घटते जा रहे हैं।

इससे असुरक्षा और चिंता बढ़ी है। केंद्र की शंका ने हालात और बिगाड़े हैं। 40वीं बरसी पर कुछ नारे और पोस्टर दिख सकते हैं लेकिन कोई बगावत नहीं होने वाली है। क्या आप उन सभी को यूएपीए और रासुका के तहत बंद कर देंगे? अगर नहीं तो समुद्र के पार बैठे कुछ सौ लोगों के साथ जंग क्यों छेड़ी जाए? यही वजह है कि हमें अपने जवान बैरक में वापस बुलाने चाहिए