मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल…पुरानी नीतियां जारी रहने का संकेत

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के तीसरे कार्यकाल में प्रमुख मंत्रालयों का आवंटन पुरानी नीतियां जारी रहने का संकेत देता है। इससे वित्तीय बाजारों में भरोसा पैदा होना चाहिए जो चुनाव नतीजों के बाद लड़खड़ाते नजर आए थे।

बहरहाल, एक ओर जहां व्यापक निरंतरता से अल्पावधि में विश्वास बढ़ाने में मदद मिलेगी, वहीं बदलते हालात के साथ नीतियों में परिवर्तन भी आवश्यक है।

ARUN SINGH (Editor)

इस संदर्भ में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से उम्मीद की जाएगी कि वह हालिया वर्षों की बुनियाद पर आगे बढ़ेंगी। उनका पिछला कार्यकाल हाल के समय में किसी भी वित्त मंत्री के लिहाज से सर्वाधिक कठिन कार्यकाल था।

मोटे तौर पर ऐसा महामारी के कारण लगे झटकों की वजह से था। हालांकि भारत महामारी के कारण लगे झटके से मजबूती से उबरने में कामयाब रहा लेकिन चल रहे प्रयासों की मदद से ही टिकाऊ वृद्धि हासिल की जा सकेगी और देश की राजकोषीय स्थिति को बेहतर बनाया जा सकेगा। वर्ष 2023-24 में भारतीय अर्थव्यवस्था में 8.2 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई और माना जा रहा है कि चालू वर्ष में यह दर 7 फीसदी रहेगी।

राजकोषीय मोर्चे पर सरकार 2025-26 तक सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 फीसदी के बराबर राजकोषीय घाटा लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बढ़ती नजर आ रही है। अपेक्षा से अधिक राजस्व संग्रह और आर्थिक वृद्धि ने राजकोषीय घाटे को गत वित्त वर्ष के दौरान ही कम करके 5.6 फीसदी के स्तर पर ला दिया था। अंतरिम बजट में इसके लिए 5.8 फीसदी का संशोधित लक्ष्य रखा गया था।

चालू वर्ष में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की ओर से अपेक्षा से अधिक अधिशेष स्थानांतरण भी सरकारी वित्त की मदद करेगा। अब जबकि सीतारमण और उनकी टीम पूर्ण बजट तैयार करना शुरू करेंगे, जिसे जुलाई में पेश किए जाने की उम्मीद है तो बेहतर होगा कि वे रिजर्व बैंक के अतिरिक्त अधिशेष का इस्तेमाल राजकोषीय घाटा कम करने में करें और उसे मध्यम अवधि के लक्ष्य के करीब ले जाएं। नए राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए अतिरिक्त व्यय का दबाव बन सकता है।

इन सब बातों के बीच सरकार अतीत के वर्षों में कड़ी मेहनत से हासिल राजकोषीय लाभ को हाथ से नहीं जाने दे। बल्कि सुझाव यह होगा कि राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3 फीसदी के स्तर तक लाने के लिए संशोधित राजकोषीय पथ प्रस्तुत किया जाए।

ऋण और जीडीपी के अनुपात को अधिक प्रबंधनयोग्य स्तर पर लाने के लिहाज से भी यह बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्वानुमानों के अनुसार भारत का आम सरकारी ऋण 2029 तक महामारी के पहले के स्तर से ऊपर बना रह सकता है।

राजस्व समायोजन के संबंध में केंद्र सरकार को जीएसटी परिषद में तत्काल वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी की दरों और स्लैब को युक्तिसंगत बनाने का प्रयास करना चाहिए। इससे न केवल राजस्व संग्रह बढ़ाने में मदद मिलेगी बल्कि कारोबारी सुगमता में भी सुधार होगा।

राजकोषीय घाटे को कम करने में एक संभावित चुनौती वृद्धि पर इसका प्रभाव होगा। महामारी के बाद की अवधि में आर्थिक वृद्धि मोटे तौर पर सरकारी पूंजीगत व्यय पर निर्भर रही है। टिकाऊ राजकोषीय समेकन के साथ निजी क्षेत्र को निवेश में कमी को पूरा करना होगा।

बहरहाल, निजी क्षेत्र अपनी क्षमता का विस्तार करने में हिचकिचा रहा है। संभव है इसकी वजह कमजोर घरेलू मांग हो। ग्रामीण भारत में जहां मॉनसून के सामान्य होने के साथ मांग में सुधार देखने को मिल सकता है, वहीं भारत को वैश्विक मांग की भी पूर्ति करनी है। सरकार ने हाल के वर्षों में टैरिफ में इजाफा किया है जो बाहरी प्रतिस्पर्धा पर असर डालता है।

वित्त मंत्रालय को उच्च टैरिफ के प्रभाव की समीक्षा करनी चाहिए कि क्या इससे टिकाऊ उच्च वृद्धि हासिल हुई। इस बीच निवेश जुटाने और वृद्धि को गति प्रदान करने के लिए एक समग्र शासकीय रुख की आवश्यकता होगी। नई सरकार के पहले पूर्ण बजट पर नजर होगी कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार आगे ले जाना चाहती है।