श्राद्ध,,
एक मित्र कह रहे थे कि श्राद्ध में कौवे को खीर इसलिए खिलाई जाती है क्यूंकि यह उनका प्रजनन काल है,, वे पुष्ट हो सकें,,कोई प्रश्न उठाये कि कौवे को खीर क्यों खिलाते हैं तो उसमें इतना रक्षात्मक होने की क्या आन पड़ी है,, अरे खिलाते हैं, हमारी खीर हमारा कोवा हमारे पूर्वज तुम्हें क्या?
दूसरी बात ये की अगर कोई सनातन परम्परा चली आ रही है तो जवाब संस्कृत में ही मिलेगा,,जैसे तोते की आयु लगभग 125 साल होती है,, मुसोलिनी ने जो तोता पाला था द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले वो अभी एक दो साल पहले मरा है, पर्याप्त खबरों में रही उसकी मृत्यु,,
तो बात बस इतनी है की संस्कृत में चिरंजीवी तोते कौवे को कहते हैं,,पक्षीयों में अकेला कौवा है जिसकी आयु हजार साल है,, चिर काल तक जीने वाला, चिरंजीवी,,
इसलिए बालकों को आशीर्वाद देते हैं तो कहते हैं चिरंजीवी भव,,इसका ये अर्थ नहीं की कौवे बन जाओ, इसका अर्थ है की खूब जिओ,,
जैसे अर्जुन को भीष्म जी कहते थे कि आओ वत्स,, इसका मतलब ये नहीं कि अर्जुन का नाम वत्स है या बालकों को वत्स कहते हैं,, इसका अर्थ इतना मात्र है कि संस्कृत में वत्स कहते हैं गाय के बछड़े को, बछड़े जितना प्यारा और नटखट जो हो वो वत्स, अरे आइयो मेरे बछड़े,, बस इतना ही!
जैसे संस्कृत में पक्षी को कहते हैं शकुनी,, यानी इधर से उधर इस डाल से उस डाल घूमने वाला,, तो दुर्योधन के मामा को भीष्म जी शकुनी कहते थे कि इधर उधर घूमता रहता है, बाद में सब कहने लगे,, शकुनी मनुष्य का नाम नहीं,पक्षी को कहते हैं,,
तो कौवा प्रतीक मात्र है पूर्वजों के चिरंजीवी होने का यानी वे शाश्वत हैं,, वे चिरकाल तक हमारा आतीथ्य स्वीकार करें और देंखे की उनके आशीर्वाद से हम खीर पूड़ी हलवा खा रहे हैं यानी सुखी स्मृद्ध हैं,,
दूसरी बात ये की हरेक पूर्वज पितर नहीं बनता,, जिनके पुण्य अतिशय हैं, जिन्होंने यज्ञ दान किए हैं, कुएं बावड़ियाँ बनवाई हैं,, हजारों लाखों गौपालन और रक्षण किया है, वेद विद्या ग्रहण की और आगे की पीढ़ियों में पहुंचाई है, जो सिद्ध हुए हैं अपने तप से, ऋषि हुए हैं, महापुरुष हुए हैं,, तपस्वी हुए है, आचार्य हुए हैं, बलिदानी हुए है,, उन्हें उनके पुण्यो के कारण दिव्य शरीर मिलता है और वे पितर होते हैं,,
हम सौभाग्यशाली हैं जो पितर पूज पा रहे हैं,, क्यूंकि हम ऐसे महान वंश में हैं जिनमें हजारों हजारों लोग अपने तप से अपने ज्ञान से अपनी पुण्याई से पितर हुए हैं,,
विरोध करते हैं न जो श्राद्ध आदि का, हंसी उड़ाते हैं इस परम्परा या व्यवस्था की, वो सिर्फ इसलिए की उनके कुल वंश में चप्पल जूते चुराने वाले हुए होंगे,, मुगलो को अपनी बेटियां भेजने वाले हुए होंगे,, अंग्रेजो के साथ मिलकर क्रन्तिकारी बन्धुओ को मारते होंगे या अन्य जघन्य अपराध किए होंगे उनके पुरखों ने, तो उन्हें पक्का विश्वास हो गया है की लोग पितर नहीं बनते, भूत प्रेत बनते हैं, नरक में वास करते हैं, पुनः पुनः कुत्ता बिल्ली कीड़ा मकोड़ा बनकर जन्मते मरते हैं, जब नाली में पड़ा कीड़ा घर के बाहर ही बिलबिला रहा है तो क्यों बाहर ढूंढ़ने जाना, पक्का पता है की अपना ही दादा नाना या दादी नानी है,,
पितर होने के लिए पुण्यो की पर्वत जैसी ऊंचाई चाहिए,
इसलिए सदैव धूमधाम से श्राद्ध पक्ष मनाइये,, गर्व कीजिए की ऐसे कुल वंश के आप पुत्र पुत्रीयां या बहु बेटे हैं जिनके पूर्वज पुण्यो से दिव्य शरीर प्राप्त करके पितर रूप में आकाश में जगमग कर रहे हैं,, इन पंद्रह दिन उन्हें खूब मान दान तर्पण दीजिए,,
(लेखिका यूपी जागरण डॉट कॉम की विशेष संवाददाता एवं धार्मिक मामलो की जानकार हैं)