न्याय व्यवस्था में आमजन का विश्वास बनाए रखने के लिए दोषी न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही आवश्यक

प्रयागराज : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यों द्वारा एक न्यायिक अधिकारी को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दिए जाने के मामले में कहा कि कर्मचारी के सेवा रिकॉर्ड में प्रतिकूल सामग्री मौजूद  होने के कारण उसे अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किया जाना चाहिए। इस पर कोर्ट ने कहा कि न्यायिक अधिकारी को अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किए जाने के मामले में स्क्रीनिंग कमेटी की राय उचित जान पड़ती है, क्योंकि याची एक न्यायिक अधिकारी है, जो राज्य की ओर से अपने संप्रभु कार्यों का निर्वहन करता है।

न्याय व्यवस्था में सामान्य आदमी की आस्था और विश्वास को बनाए रखने के लिए जांच के घेरे में घिरे न्यायिक अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही आवश्यक हो जाती है।अतः यह न्यायालय राज्य सरकार द्वारा पारित सेवानिवृत्ति के परिणामी निर्णय में किसी तरह का हस्तक्षेप उचित नहीं मानता है। मामले के अनुसार 24 मार्च 2001 को याची मुंसिफ/ सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में नियुक्त किया गया था और उन्हें 2 जुलाई 2015 को उत्तर प्रदेश उच्चतर न्यायिक सेवा नियमावली, 1975 के नियम 22 (1) के अंतर्गत उच्चतर न्यायिक सेवा में पदोन्नति प्रदान की गई। उनकी जन्मतिथि के अनुसार वे फरवरी 2026 में सेवानिवृत्त हो जाएंगे। हालांकि उनके कार्यकाल को राज्य सरकार द्वारा 29 नवंबर 2021 को पारित एक आदेश के कारण कम कर दिया गया।

याची जब कौशांबी में विशेष न्यायाधीश (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम) के रूप में तैनात थे, तभी वित्तीय पुस्तिका के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें सेवानिवृत्त करने का आदेश पारित किया गया। हालांकि याची का तर्क है कि उनके सेवा रिकॉर्ड पर कोई प्रतिकूल सामग्री मौजूद नहीं थी, जिसके आधार पर उन्हें अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी जाए। स्क्रीनिंग कमेटी की जांच दोषपूर्ण, विकृत और पक्षपाती है। याची के अधिवक्ता का यह भी तर्क है कि याची के निरंतर संतोषजनक कामकाज पर ध्यान न देते हुए स्क्रीनिंग कमेटी ने एक गलत निर्णय लिया है, लेकिन न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने स्क्रीनिंग कमेटी की जांच को उचित मानते हुए रमेश कुमार यादव की याचिका को खारिज कर दिया।

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