राम जनमानस के जीवन-दर्शन हैं । परिवार , समाज , लोक , संसार सबमें एक अकेला जीव अपने को इकाई समझ , कैसे रहे कर्तव्य बोध कैसा हो ,फिर जीवन का मुख्य ध्येय कैसे सिद्ध हो , सबकुछ राम ने अपने आचरण में लाकर प्रोत्साहना दिया है । इसीलिये उन्हे मर्यादा -पुरुषोत्तम् कहा गया है ।
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीता
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्
भक्ति मार्ग के संत तुलसी जी ने राम को ब्रह्म के सर्गुणी अवतार के रूप में प्रतिष्ठित किया है ।
व्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद ।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ।।
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के माध्यम से विश्व को राम नाम की महिमा से परिचित कराया। महर्षि वाल्मीकि को ‘रामनाम’ की महत्ता के बारे में देवर्षि नारद ने बताया था। उसके उपरांत वाल्मीकि जी के जीवन की धारा ही बदल गई। महर्षि वाल्मीकि ने नारद जी की देखरेख में इतनी गहरी साधना की कि उनकी जिह्वा से नहीं, बल्कि नाभि और त्वचा के रोम रोम से ‘राम’ शब्द निकलने लगा।
जब गहरी साधना होती है तब यह स्थिति स्वभावतः हो जाती है. और कुंडलिनी जागृत हो जाती है। कुंडलिनी वह कुंड है जहां से नलिनी (कमल) खिलती है। भगवान विष्णु की नाभि से खिले कमल पर ही ज्ञान एवं सृजन के देवता ब्रह्मा विराजमान होते हैं। वस्तुतः, योग-सिद्धि के बाद किसी भी व्यक्ति की यह स्थिति हो जाती है कि फिर ब्रह्म को वह बाहर नहीं, अपितु अपने भीतर ही खोजता है।
प्रायः पूजा-पाठ के समय अधिकांश उपासक आंख बंद कर आकाश या मंदिर तथा आश्रम आदि में अधिष्ठापित पत्थर, धातु, लकड़ी, प्लास्टिक या फाइबर आदि के देव विग्रह पर ध्यान लगाते हैं, लेकिन वाल्मीकि या उन जैसे सिद्धपुरुष वाह्य- यात्रा से विरत होकर अंतर्जगत की यात्रा आरंभ करते हैं। बाहर की मूर्तियों पर ध्यान सिर्फ इसलिए लगाने के लिए बताया गया कि उपासक यह जाने कि भगवान की जिस मूर्ति पर ध्यान केंद्रित किया गया, उस भगवान के कौन-कौन से कार्य थे, जिनसे वे पूजनीय हुए।
बस पूजनीय कार्यों को मन के साफ्टवेयर में डाउनलोड करते ही भगवान के करीब पहुंचना सहज हो जाता है। एक दिव्य प्रकाश दिखाई पड़ता है तथा परम आनंद की अनुभूति होने लगती है। जीवन की सार्थकता सिद्ध होने लगती है। तब खुद ही महसूस होने लगता कि जीवन की कुशलता के लिए कौशल्या के गर्भ से राम प्रकट हो गए हैं। तब दैवी तब दैवीय आकर्षण की आभा से अंतस का साक्षात्कर होता है। ऐसी स्थिति में महल, सत्ता और वाह्य आकर्षण सब फीके लगने लगते हैं। हमें उसी स्थिति के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।
भारत एक धर्मप्रिय राष्ट्र है । आस्तिकता इस राष्ट्र की रीढ़ धरोहर है । सनातनियों के प्रेरक , इष्ट , धर्म से लगाव राम निरन्तर मानव समूह को जीवन के परम उद्देश्य को सफल बनाने में कर्तव्य मार्ग पर स्वतःस्फूर्त कराते वाले राम का जन्म दिवस चैत्र सुदी नवमी है । इन्हें वाल्मीकि ने अपने ग्रन्थ रामायण में अपना इष्ट माना है और जगत के नियन्ता ब्रह्म के अवतार के रूप में निरूपित किया है ।
यद्यपि रामायण से पूर्व भी संस्कृत में काव्य का अभाव न था पर पवित्र और प्राचीनतर रामायण ग्रन्थ से पहले अपौरुषेय माने जाने वाले ‘ वेद ‘ अधिकांश पद्य मय ही हैं । सर्वसम्मति से रामायण ही आदिकाव्य माना जाता है । साथ ही यह ग्रन्थ ब्रह्म के अवतार ‘राम ‘ के गुणानुवाद करता हुआ विश्वसाहित्य का अप्रतीम ग्रन्थ है ।
राम अवतारी शक्ति हैं , उन्हें दिव्यगुणोका निधान कहा गया । , उन्हें पुत्र के रूप में पाकर दशरथ को ओर क्या पाना शेष रह गया ।
दशरथ पुत्रजन्म सुनि काना ।
मानहुँ ब्रह्मानंद समाना ।।
जब सारे लोग कहते हैं कि ईश्वर सबके हृदय में विराजमान है तो इसका अर्थ यही है कि ईश्वर सबको प्राप्त है , बस उसके न प्राप्त होने का भ्रम बना हुआ है । राम ऐसे ही अवतार हैं । राम के सम्बंध में तुलसी ने अति गूढ़ विवेचन किया है जिसे सत्संग सरोवर मे डुबकी लगा कर समझा जा सकता है । राम के व्यक्तित्व के वास्तविक स्वरूप का थोड़े शब्दों मे तुलसीदास ने उनकी वंदना करते हुए वर्णन किया है –
उन भक्ति मुक्ति सहजदायक राम को हम बार बार नमस्कार करते हैं । तुलसीदास जी ने सही कहा है –
ऐसो को उदार जगमाहीं
बिन सेवा द्रवहिं जो दीन पर राम सरिस कोउ नाही ।
(लेखिका यूपी जागरण डॉट कॉम A Latgest Web News Channel Of Incredible BHARATकी विशेष संवाददाता एवं धार्मिक मामलो की जानकार है )