मैं ओंकार हूं
कृष्ण कहते हैं, मैं ओंकार हूं। और कृष्ण कहते हैं, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद भी मैं ही हूं।
ओंकार कहकर कृष्ण कहते हैं कि मैं वह परम अस्तित्व हूं, जहां केवल उस ध्वनि का साम्राज्य रह जाता है, जो कभी पैदा नहीं हुई’ और कभी मरती नहीं है, जो अस्तित्व का मूल आधार है। उस संगीत के सागर का नाम ओंकार है।
उस तक पहुंचना हो, तो अपने मन से सब ध्वनियां समाप्त करनी चाहिए। अपने मन से एक-एक ध्वनि को छोड़ते जाना चाहिए, एक-एक शब्द को, एक-एक विचार को और मन की ऐसी अवस्था ले आनी चाहिए, जब मन निर्ध्वनि हो जाए, साउंडलेस हो जाए। और जिस दिन आप पाएंगे कि मन. हो गया ध्वनिशन्य, उसी दिन आप पाएंगे, ओंकार प्रकट हो गया! ओंकार वहां निनादित हो ही रहा था। ओंकार की धुन वहां बज ही रही थी सदा से, अनंत से, अनादि से। लेकिन आप इतने शोरगुल में व्यस्त थे, आप इतने जोर में लगे थे बाहर कि आपको वह ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती थी।
आपका यह उपद्रव शांत हो जाए, आपका यह बुखार से भरा हुआ, दौड़ता हुआ पागलपन शांत हो जाए, तो जो सदा ही भीतर बज रहा है, वह अनुभव में आने लगता है। वह मनुष्य की आत्यंतिक अवस्था है। वह उसका परम भविष्य है।
मुझे ऐसा खयाल में आता है कि विद्युत और ध्वनि के बीच ठीक वैसा ही संबंध है। इसलिए ध्वनि के बिना विद्युत नहीं हो सकती, और विद्युत के बिना ध्वनि नहीं हो सकती। लेकिन पूरब और पश्चिम में यह बुनियादी फर्क क्यों आया, उसका कारण है। उसका कारण कीमती है। वह समझ लेना चाहिए।
इसलिए शायद कहीं भाषा की भूल है, लिंग्विस्टिक भूल है। असल में अंडा और मुर्गी दो चीजें नहीं हैं; अंडा और मुर्गी एक ही चीज के दो रूप हैं। ऐसा कहना चाहिए कि अंडा जो है, वह छिपी हुई मुर्गी है, मुर्गी जो है, वह प्रकट हो गया अंडा है। इनको दो में बांटने की बात ही गलत है। दो में बाटने से फिर कभी हल नहीं होता।
वह फर्क इसलिए है कि पश्चिम ने जो खोज की है, वह पदार्थ को तोड़कर की है। पदार्थ को तोड़ा, आखिरी परमाणु की खोज की, कि कौन-सी चीज से पदार्थ बना है? विद्युत मिली। पूरब ने जो खोज की है, वह पदार्थ को तोड़कर नहीं की है, वह अपने ही मन को तोड़कर की है। ध्यान रखें, मैटर हैज बीन एनालाइब्द इन दि वेस्ट एंड माइंड इन दि ईस्ट।
अगर आप पदार्थ को तोड़ेंगे, तो जो अंतिम अणु हाथ में आने वाला है, वह विद्युत का होगा। अगर आप मन को तोड़ेंगे, तो जो अंतिम अणु हाथ में आने वाला है, वह ध्वनि का होगा। किसी न किसी दिन पदार्थ का जो अंतिम अणु है वह, और मन का जो अंतिम अणु है वह, वे एक ही सिद्ध होंगे; या एक के ही दो रूप सिद्ध होंगे।
अगर मुझसे पूछें, तो मैं ऐसा कहूंगा कि वह जो पदार्थ का अणु है, वह अप्रकट मन है; और वह जो मन का अणु है, वह प्रकट हो गया पदार्थ है। परमाणु भी पदार्थ का छिपा हुआ मन है, ए हिडेन माइंड। क्षुद्रतम में भी विराट छिपा हुआ है, और विराट को भी प्रकट होना हो, तो क्षुद्र का ही सहारा है।
कृष्ण कहते हैं, मैं ओंकार हूं। और कृष्ण कहते हैं, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद भी मैं ही हूं।
ओंकार के बाद वेद की बात कहने का कारण है, प्रयोजन है। कृष्ण कहते हैं, वह परम ध्वनि मैं हूं और उस परम ध्वनि को पहुंचने वाले जितने भी शास्त्र हैं, वह भी मैं हूं। उस परम ध्वनि की ओर जिन-जिन शास्त्रों ने इशारा किया है, वह भी मैं हूं। वह ध्वनि तो मैं हूं ही, लेकिन जो इंगित; वह चांद तो मैं हूं ही, जिन अंगुलियों ने चांद की तरफ इशारा किया है, वे अंगुलियां भी मैं ही हूं। क्योंकि मेरे अतिरिक्त मेरे उस गुह्यतम रूप की तरफ इशारा भी कौन कर सकेगा? मेरी तरफ अंगुली भी कौन उठा सकेगा सिवाय मेरे?
तो कृष्ण कहते हैं, वेद भी मैं ही हूं।
वेद का अर्थ है, वह सब, जिसने ओंकार की ओर इशारा किया है। वेद का अर्थ है, वह सारा ज्ञान, जिसने उस परम ध्वनि की तरफ ले जाने का मार्ग खोला है। उन्होंने तीन वेद का नाम लिया है। विचारपूर्वक ही यह बात है। क्योंकि कल मैंने आपसे कहा, तीन प्रकार के मनुष्य हैं। तो तीन प्रकार के वेद होंगे। तीन प्रकार के मन हैं, तो तीन प्रकार के ज्ञान होंगे। तीन तरह के टाइप हैं, प्रकार हैं, तो तीन प्रकार के इशारे होंगे।
कृष्ण ने कहा कि वे तीनों वेद मैं हूं।
चाहे कोई कर्म से अपने कर्ता को मिटा दे, तो ओंकार में प्रवेश कर जाता है। चाहे कोई अपने प्रेम से प्रेमी को डुबा दे, तो ओंकार में प्रवेश कर जाता है। और चाहे कोई अपने ज्ञान से द्वैत के पार हो जाए, अद्वैत में प्रवेश कर जाए, तो उस ओंकार को उपलब्ध हो जाता है।
वेद का अर्थ है, वे किताबें नहीं, जो वेद के नाम से जानी जाती हैं। वेद से अर्थ है, वे समस्त इशारे, जो मनुष्य-जाति को कभी भी और कहीं भी उपलब्ध हुए हों, जो ओंकार की तरफ ले जाते हैं। ध्यान रखें, वेद शब्द बहुत अदभुत है। इसके बड़े विस्तीर्ण अर्थ हैं। वेद शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान। इसलिए वेद को किसी किताब में बांधा नहीं जा सकता। जहां भी ज्ञान है, वहीं वेद है। जहां भी इशारा है, वहीं वेद है।
उन दिनों तक कृष्ण ने जब यह बात कही, तो वह सारा ज्ञान तीन पुस्तकों में संगृहीत था। इसलिए इन तीन पुस्तकों का नाम लिया। अगर आज कृष्ण हों, तो इन तीन का नाम नहीं लेंगे। इसमें कुरान भी सम्मिलित होगा, इसमें बाइबिल भी सम्मिलित हो जाएगी, इसमें जेंदावेस्ता भी जुड़ेगा, इसमें लाओत्से का ताओ तेह किंग भी आने ही वाला है। इन पांच हजार वर्षों में, कृष्ण के बाद, जो-जो इशारे उस ओंकार की तरफ हुए हैं, वे भी वेद का हिस्सा हो गए।
वेद एक विकासमान धारा है। वेद कोई सीमित किताब नहीं है। इसीलिए वेद का कोई लेखक नहीं है। एक-एक वेद में सैकड़ों ऋषियों के वचन हैं। उस जमाने तक जितने ऋषियों का ज्ञान था, वह सब संगृहीत हो गया। फिर वेद के दरवाजे बंद हो गए। और जिस दिन वेद के दरवाजे बंद हुए, उसी दिन हिंदू धर्म मुर्दा हो गया। वेद का दरवाजा खुला ही रहना चाहिए। उसमें नए ऋषि होते रहेंगे। उनके वचन संगृहीत होते ही चले जाने चाहिए। चाहे वे कहीं भी हों।
वेद किसी व्यक्ति की किताब नहीं है। यह बड़े मजे की बात है। वेद न मालूम कितने व्यक्तियों का संग्रह है। उस जमाने तक जितने लोगों ने जाना था, उन सबका संग्रह है। लेकिन फिर द्वार बंद हो गए। जब कोई धर्म जीवंत होता है, तो भयभीत नहीं होता, खुले दरवाजे रखकर सोता है। जब कोई धर्म कमजोर हो जाता है, मरने के करीब आता है, बूढ़ा हो जाता है, तो दरवाजे बंद कर देता है और पहरे लगा देता है। ये कमजोरी के लक्षण हैं। लेकिन जिस दिन दरवाजा बंद होता है, उसी दिन ज्ञान तो आगे बढ़ता चला जाता है, किताब रुक जाती है। किताब रुक जाती है। ठीक वैसी घटना अभी थोड़े दिन पहले फिर घटी। उससे आपको बात समझ में आ जाएगी।
सिक्खों का वेद है, गुरु-ग्रंथ। नानक के समय में, उस समय के जितने ज्ञानियों के इशारे थे, सब उसमें संगृहीत किए गए हैं। उसमें फिक्र नहीं की गई है कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है, कौन ब्राह्मण है, कौन शूद्र है। उसमें फरीद के भी वचन हैं, उसमें और कबीर के भी, उसमें दादू के भी। उस समय जितने भी फकीर इशारे वाले थे, उन सबके वचन संगृहीत कर लिए गए हैं।
लेकिन फिर धीरे- धीरे बात मरने लगी। फिर धीरे- धीरे दरवाजे सख्त होने लगे। फिर उसमें वही सम्मिलित हो सकेगा, जो सिक्ख है। फिर दसवें गुरु ने द्वार बंद कर दिए। धर्म कमजोर हो गया। फिर दसवें गुरु ने कहा कि अब इस किताब में आगे नहीं जोड़ा जा सकेगा। उसी दिन यह किताब बूढ़ी होकर मर गई। क्योंकि अब इसमें ग्रोथ नहीं हो सकती। लेकिन दस गुरुओं तक यह किताब विकासमान होती रही, बढ़ती होती रही। इसमें जुड़ता रहा।
शान एक धारा है, जैसे गंगा एक धारा है। गंगा अगर कह दे प्रयाग में आकर कि अब नदी-नाले मुझमें नहीं जुड़ सकेंगे, अब कोई मुझमें आगे नहीं जुड़ेगा। अब मैं गंगा हूं। और एक गंदे नाले को मैं नहीं गिरने दूंगी।
क्योंकि कहां पवित्र गंगा, और एक साधारण-सा नाला आकर मुझमें गिर जाए और गंदा कर जाए!
जिस दिन गंगा यह कहती है कि एक साधारण-सा नाला मुझमें गिरकर मुझे गंदा कर देगा, उस दिन वह गंगा नहीं रही। क्योंकि गंगा का मतलब ही यह है कि जिसमें कोई भी गिरे, गिरते से पवित्र हो .जाए। अब नाला गंगा को गंदा कर देगा, तो नाला ज्यादा शक्तिशाली हो गया!
जब भी कोई धर्म भयभीत हो जाता है और डरता है कि कुछ मिश्रित न हो जाए, कुछ गलत न हो जाए, इसलिए सब घेराबंदी कर लो, उस दिन किताबें बंद हो जाती हैं।
वेद की जब कृष्ण ने यह बात कही, तब ये तीनों किताबें जिंदा किताबें थीं। अब ये तीनों किताबें जिंदा किताबें नहीं हैं। एक जगह इनके द्वार बंद हो गए। अगर वे द्वार खुले होते, तो वेद ने जगत के सारे शान को संगृहीत किया होता।
जैसा कि आपने देखा होगा, वेद ठीक वैसी ही चीज थी इस मुल्क में, जैसे कि आज इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका है। हर वर्ष उसको नए एडीशन करने पड़ते हैं। क्योंकि ज्ञान विकसित होता है, उसे सम्मिलित कर लेना होता है। रोज ज्ञान बढ़ता है, तो इनसाइक्लोपीडिया को रोज ज्ञान को बढ़ाए जाना पड़ता है। उसके पुराने एडीशन बाहर होते जाएंगे। रोज यह ज्ञान बढ़ता रहेगा। किसी
दिन अगर इनसाइक्लोपीडिया वाले यह सोचें कि बस, अब हम और शान को भीतर नहीं आने देंगे, उसी दिन इनसाइक्लोपीडिया आउट आफ डेट हो जाएगा, उसी दिन मर जाएगा। वेद हमारा इनसाइक्लोपीडिया था। ओंकार की तरफ जितने इशारे किए गए थे, हमने वेद में संगृहीत किए थे।
तो कृष्ण कहते हैं, वे तीनों वेद मैं ही हूं।
और हे अर्जुन, प्राप्त होने योग्य गंतव्य, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, सबका साक्षी, सबका वास स्थान, शरण लेने योग्य, हितकारी, उत्पत्ति, प्रलय सबका आधार, निधान और वह, जिसमें सबका लय होता है, अविनाशी, बीज कारण भी मैं ही हूं। इसमें तीन-चार बातें महत्वपूर्ण हैं, वह हमें खयाल में ले लेनी चाहिए।
गंतव्य, दि एंड, आखिरी मंजिल, जो पाने योग्य है, वह मैं ही हूं। और अगर मेरे अतिरिक्त कुछ भी तुझे पाने योग्य लगता है, तो थोड़ा सोच-समझ लेना, वह पाने योग्य नहीं हो सकता। परमात्मा के अतिरिक्त जो भी व्यक्ति कुछ और पाने में लगा है, सच पूछिए तो पाने में नहीं, खोने में लगा है।
परमात्मा के अतिरिक्त अगर आपने कुछ पा भी लिया, तो आखिर में आप पाएंगे कि आपने सब खो दिया, पाया कुछ भी नहीं है। क्योंकि और हम कुछ भी पा लें, वह हमारी संपदा नहीं बनती, सिर्फ विपत्ति बनती है। संपत्ति नहीं, विपत्ति। कुछ भी हम इकट्ठा कर लें, वह हमसे बाहर ही छूट जाता है। वह हमारे प्राणों का विकास नहीं होता, सिर्फ प्राणों पर बोझ बन जाता है। और एक न एक दिन मृत्यु सब छीन लेती है। मृत्यु सब छीन लेती है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी मरणशथ्या पर पड़ा है। आखिरी घड़ी है। वह आंख खोलता है और अपनी पत्नी से कहता है कि मेरा जो सागर के तट पर भवन है, चाहता हूं कि मेरे मित्र अहमद को दे दिया जाए-वसीयत कर रहा है।
उसकी पत्नी कहती है, अहमद को? इस आदमी की शक्ल मुझे पसंद ही नहीं। बेहतर हो, यह हम रहमान को दे दें!
मुल्ला दुख में आंख बंद कर लेता है। फिर आंख खोलता है और कहता है, ठीक, मेरा जो पहाड़ पर बंगला है, वह मैं चाहता हूं कि मेरी बड़ी लड़की को दे दिया जाए।
उसकी पत्नी कहती है, बड़ी लड़की को? उसके पास काफी है! मेरी छोटी लडकी के लिए एक मकान की पहाड़ पर जरूरत है। वह उसको दे देना उचित है।
मुल्ला और भी थोड़ी देर तक आंख बंद किए पड़ा रहता है। फिर आंख खोलता है और कहता है कि मेरी जो बड़ी कार है, वह मेरे मित्र मर गए हैं, उनका बेटा है, उसको दे देना चाहता हूं।
उसकी पत्नी कहती है, उस पर तो मेरी बहुत दिन से आंख है। वह मैं किसी को नहीं दे सकती हूं। वह तो मेरे छोटे बेटे के काम में आने वाली है।
मुल्ला तब आंख बंद करके कहता है कि एक बात पूछूं आखिरी? मैं यह जानना चाहता हूं मर कौन रहा है? मैं मर रहा हूं कि तू मर रही है? तू कम से कम इतना धीरज तो रख कि मुझे मर जाने दे। फिर तुझे जो करना हो, करना। इतना तो मुझे पता ही है कि जब जिंदगी अपनी न हुई, तो वसीयत क्या अपनी होने वाली है!
मौत सब छीन लेती है। लेकिन फिर भी आदमी वसीयत तो कर जाना चाहता है। यह मरने के बाद भी अपना दावा रखने की चेष्टा है। जो भी हम इकट्ठा कर लेंगे, मौत छीन लेगी। सिर्फ एक संपदा है, जो मौत नहीं छीन पाती है। वह संपदा परमात्मा की है। वह संपदा प्रभु के अनुभव की है। वह संपदा उस स्वभाव की है, जो हम में ही छिपा है। वह उस ओंकार की है, जो सदा है और कभी छीना नहीं जा सकता।
कृष्ण कहते हैं, गंतव्य मैं हूं सबका स्वामी, सबका साक्षी, सबका वास स्थान! जहां सब रह रहे हैं, वह मैं हूं। जो सबको चला रहा है, वह मैं हूं। और जो सबको देख रहा है, वह भी मैं हूं। शरण लेने योग्य, जिसकी शरण तुम आओ, ऐसा भी मैं हूं। हित करने वाला; उत्पत्ति-प्रलय-रूप। जन्म मुझसे तुम्हारा हुआ, सम्हाला मैंने तुम्हें, खोओगे भी तुम मुझमें ही। सबका अंतिम बीज कारण मैं हूं। यह कृष्ण क्यों कह रहे हैं अर्जुन को? वह इसलिए कह रहे हैं कि अर्जुन तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला।
यह अंतिम सूत्र ठीक से समझ लें।
वे यह कह रहे हैं, तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। बनाया मैंने, सम्हाला मैंने, मिटाऊंगा मैं; तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला।
वह अर्जुन कह रहा है कि युद्ध में मैं नहीं जाना चाहता हूं क्योंकि मुझे लगता है, यह पाप है। कृष्ण कहते हैं, मालिक मैं हूं साक्षी मैं हूं निर्माता मैं हूं और तुझे लगता है कि पाप है! गवाही मैं हूं तेरी अंतिम गवाही मैं हूं; और तू कुछ भी करेगा, मैं ही तेरे भीतर करूंगा, तू जाने या न जाने। लेकिन तू कहता है कि यह मुझे लगता है, पाप है! तू कहता है कि मेरे मन को पीड़ा होती है, कि अपने ही प्रियजनों से कैसे लडूं!
वह कृष्ण कहते हैं, सबका आधार मैं हूं सबका पिता मैं हूं सबका भविष्य मैं हूं लेकिन तू अपने को बीच में क्यों ला रहा है? मतलब यह है कि अहंकार अपने को मालिक समझता है, और अहंकार अपने को निर्णायक समझता है। और अहंकार समझता है कि मैं ही निर्णय करूंगा, वैसा ही मुझे चलना है। अहंकार समर्पण करने को तैयार नहीं है।
समर्पण तो तभी हो सकेगा, जब हमें पता चले कि न मैंने मुझे बनाया है, न मैं स्वयं को सम्हाले हुए हूं। अभी यह शब्द मेरे मुंह से निकलता है, दूसरा न निकले, उसे भी निकालने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। एक सांस आती है, और फिर न आए, तो एक सांस लेने का भी कोई उपाय नहीं है। इतना निरुपाय, इतना असहाय, इतना न होने के बराबर मैं हूं। लेकिन फिर भी मैं निर्णय करता हूं कि मैं यह करूंगा और यह नहीं करूंगा, और यह ठीक है, और यह गलत है! निर्णायक मेरा अहंकार बनना चाहता है। कृष्ण उसे यही समझा रहे हैं कि अगर तू गौर से देखेगा, तो नीचे-ऊपर सब दिशाओं में सब भांति मुझे छाया हुआ पाएगा। और अच्छा हो कि तू अपनी यह मालकियत छोड़ दे। यह मालकियत ही तेरा दुख और तेरा पाप है।
एक ही पाप है, स्वयं की अस्मिता को, अहंकार को मजबूत किए जाना। और एक ही पुण्य है, स्वयं की अस्मिता को, अहंकार को पिघलाते चले जाना। एक घड़ी आ जाए, जिस दिन मैं न रहूं, मेरा बोध न रहे, तो उस दिन मेरे भीतर जो बोलेगा, जो चलेगा, जो उठेगा, जो करेगा, वह परमात्मा है। उस दिन न मेरा कोई पाप है, न मेरा कोई पुण्य है। उस दिन न मेरा कोई कर्तव्य है और न कुछ अकर्तव्य है। उस दिन जो होगा, वह सहज होगा; जैसे श्वास चलती है, खून बहता है, हवाएं चलती हैं, सूरज निकलता है। उस दिन मेरी कोई जरूरत ही नहीं है।
कृष्ण उस दिशा में अर्जुन को इशारा कर रहे हैं कि तू थोड़ा समझ। तू यह फिक्र छोड़ कि तू इनका मारने वाला है, कि तू इनका बचाने वाला हो सकता है। तू यह भी फिक्र छोड़ कि तेरे ऊपर यह निर्णय है कि यह युद्ध शुभ है या अशुभ है। तू जरा चारों तरफ गौर से देख। तू सिर्फ एक लहर है। एक क्षण को उठा है और एक क्षण बाद खो जाएगा। मैं सागर हूं। मैं तुझसे कहता हूं कि तू मेरे से ही उठा है, मुझसे ही सम्हाला गया है। मैं ही तेरा अभी भी मालिक हूं अभी भी मैं ही तेरा साक्षी हूं। जब तू नहीं था, तब भी मैं था; जब तू नहीं होगा, तब भी मैं रहूंगा। तू मेरी तरफ देख और अपने कर्ता के भाव को मेरे ऊपर छोड़ दे। मुझे हो जाने दे कर्ता और तू बन जा केवल उपकरण, तू बन जा केवल एक बांस की पोगरी। गीत मुझे गाने दे, तू बीच में मत आ। तू बीच में आएगा, वही तेरा दुख, वही तेरी पीड़ा, वही तेरा संताप है।
यह सारी की सारी बात समझाने के पीछे अहंकार को पिघलाने का इशारा है। अहंकार बर्फ की तरह हमारे भीतर जमा हुआ है, फ्रोजन। उसे थोड़ा पिघलाना जरूरी है।
कभी आपने खयाल किया, सागर में एक बर्फ की चट्टान तैर रही हो, तो सागर से बिलकुल अलग मालूम पड़ती है। पीछे मैंने कहा, लहर सागर से अलग मालूम पड़ती है। लेकिन लहर का भ्रम ज्यादा देर नहीं चल सकता, क्योंकि लहर कितनी देर उठी रहेगी? क्षणभर बाद गिर जाएगी और खो जाएगी। लेकिन लहर अगर फ्रोजन हो जाए, जम जाए, बर्फ बन जाए, फिर लहर का भ्रम बहुत देर चल सकता है। क्योंकि जब तक बर्फ न पिघले! और अगर चारों तरफ दूसरी लहरें भी जमकर बर्फ हो गई हों, तो यह भ्रम और भी बहुत देर चल सकता है। क्योंकि गर्मी भी कहीं से नहीं मिलेगी, सब तरफ से अहंकार की ठंडक ही मिलेगी, यह और जम जाएगी। हम सब ऐसी ही लहरें हैं, फ्रोजन वेक। और चूंकि हम चारों तरफ सभी बर्फ बन गए हैं जमकर, एक-दूसरे को हम ठंडक देते रहते हैं और जमाते रहते हैं। हम सब एक-दूसरे के अहंकार को जमाने की चेष्टा में लगे रहते हैं, हमें पता हो या न पता हो।
बाप बेटे से कहता है कि शाबाश, तू पहला नंबर आ गया है स्कूल में! आएगा क्यों नहीं; आखिर मेरा ही बेटा जो है! ये एक-दूसरे को जमा रहे हैं। बेटे के अहंकार को जमाने की चेष्टा चल रही है।
बेटा आज अगर प्रथम नहीं आया है, तो घर बिलकुल उदास है। मां बेचैन है, बाप पराजित मालूम पड़ रहा है। बेटा भी चिंतित है। क्या हुआ है? जरा बर्फ पिघलने लगी। वह अहंकार, मैं-हमारे घर में कभी कोई नंबर दो आया ही नहीं, और यह बेटा नंबर दो आ गया! हम सब एक -दूसरे को जमाने की कोशिश में लगे हैं। हमारी शिक्षा, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, सब एक-दूसरे को जमा रही है; सब जम जाएं, सख्त हो जाएं भीतर।
अगर जब सारी लहरें एक-दूसरे को जमाने में लगी हों, तो फिर नीचे के सागर का खयाल आना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिन लोगों को समाज को छोड्कर भागना पड़ा-बुद्ध को या महावीर को या जीसस को या मोहम्मद को भी स्वात में भाग जाना पड़ा-उसका कारण अगर मौलिक आप समझना चाहें, तो सिर्फ इतना ही है कि आप सब इतने जमे हुए बर्फ की चट्टानें हैं कि आपके बीच में पिघलना बहुत मुश्किल है! पूरा टेंपरेचर नहीं है पिघलने का वहां। सब जीरो डिग्री से नीचे जमे हुए हैं। वहा अगर कोई पिघलना भी चाहे, तो पिघलना मुश्किल है। चारों तरफ जमाने वाले लोग मौजूद हैं।
इसलिए बुद्ध या महावीर को समाज छोड्कर भागना पड़ता है। समाज को छोड्कर भागने का और कोई कारण नहीं है। अकेले में जाना पड़ता है, ताकि वहा कम से कम अपनी ही ठंडक से लड़ना पड़े; दूसरों की ठंडक से तो न लड़ना पड़े। अकेले, एकांत में, जहां चारों तरफ कोई ठंडक न हो।
मैंने सुना है, फकीर बोकोजू जंगल में था। उसके ज्ञान की खबर राजधानी तक पहुंच गई। सम्राट उससे मिलने आया। सम्राट आया था मिलने, तो सम्राट था, कुछ भेंट लानी चाहिए। तो एक बहुत बहुमूल्य;.’ लाखों रुपए की कीमत का एक कोट सिलवा लाया। उसमें लाखों रुपए के हीरे-जवाहरात लगा दिए। बड़ा कीमती वस्त्र था। शायद पृथ्वी पर वैसा खोजना दूसरा मुश्किल हो। सम्राट उसे बड़ी मेहनत से बनवाकर लाया था।
जब सम्राट फकीर के सामने मौजूद हुआ, तो फकीर एक चट्टान पर नग्न, एक वृक्ष से टिका हुआ बैठा है। सम्राट ने चरण छुए, भेंट रखी। फकीर भेंट को देखकर हंसा। फिर फकीर ने ऊपर वृक्ष की तरफ देखा। फिर आस-पास हिरण घूमते थे, उनकी तरफ देखा। फिर आकाश में चीले उड़ती थीं, उनकी तरफ देखा।
उस सम्राट ने कहा, आप क्या देख रहे हैं? तो उसने कहा, मैं यह देख रहा हूं कि तुम्हारा यह कोट मुझे बड़ी दिक्कत में डालेगा। क्योंकि अगर यह कोट तुमने मुझे राजधानी में दिया होता, तो राजधानी में सभी आदमी इस कोट की प्रशंसा करते और कहते कि मैं बहुत महान हो गया हूं, क्योंकि मुझे यह राजा का कोट मिल गया है। लेकिन यहां जंगल में बेपढ़े-लिखे जानवर हैं, असभ्य, इन को कुछ पता नहीं है। मैंने ऊपर देखा इसलिए कि वे जो तोते बैठे हैं, वे हंस रहे हैं।
मैंने ऊपर देखा कि वह जो चील उड़ रही है, वह मजाक उड़ाएगी। मैंने हिरण की तरफ देखा, उसकी आंख में शरारत है। आपके जाते ही ये सब कहेंगे, बन गए बुद्ध! कैसे मुक्त थे, कैसे आनंद में थे, नग्न! कैसे स्वतंत्र थे, कैसे परमात्मा की हवाएं सीधा छूती थीं! पहन लिया कोट! और फिर यहां हीरे-जवाहरात का कोई पता रखने वाला भी नहीं है। तो मैं शान भी बघारूंगा, तो किसके सामने? और अकड़कर चलूंगा भी, तो कहां? यहां अगर अकड़कर चलूंगा, तो यह सारा जंगल मुझ पर हंसेगा। तो यहां मैं सम्राट के द्वारा सम्मानित कम और किसी सर्कस का जोकर ज्यादा मालूम पडूगा। यह कोट तुम ले जाओ, इतनी कृपा करो।
जंगल में आपके आस-पास ठंडक देने वाला कोई भी नहीं है, आपके अहंकार को ठंडा करने वाला कोई भी नहीं है, पिघल जाएगा आसानी से। इसलिए भागते रहे लोग।
कृष्ण उसी अहंकार को पिघलाने के लिए कह रहे हैं, सब मैं हूं। अगर तुझे यह स्मरण आ जाए अर्जुन, तो तू जो इस खयाल से भर रहा है कि तू ही केंद्र है और तेरे ऊपर ही सब दारोमदार है, यह खयाल तेरा छूट जा सकता है। और यह खयाल न छूटे, तो आदमी की आंखें अंधी ही रह जाती हैं।
अहंकार अंधापन है। और अहंकार के छूट जाते ही प्रज्ञा की आंख खुलती है, और जीवन जैसा है वैसा पहली बार दिखाई पड़ता है।