108 साल पहले अमेरिका से लाए सेब के पौधे, हिंदू धर्म अपनाया… वो अंग्रेज तपस्वी जिसने हिमाचल को दी नई पहचान

  सोशल सर्विस करने वाले अमेरिकन सैमुअल स्टोक्स के पिता की निधन हो गया। वे पिता के अंतिम संस्कार से जुड़ी रस्मों को पूरा करने के लिए अमेरिका चले गए। साल 1916 में वापसी के दौरान उन्होंने अमेरिकन सेब के पौधे खरीदकर दो बीघा जमीन पर लगवाया।

      शिमला: अमेरिका के फिलाडेल्फिया में पिता का बड़ा कारोबार था, लेकिन सैमुएल इवांस स्टोक्स जूनियर की उसमें कोई रुचि न थी। साल 1904 में 22 साल की उम्र में वह भारत पहुंचे और शिमला के पास सुबाथु की कोढ़ियों की बस्ती में काम करने लगे। उस समय कोढ़ का कोई इलाज नहीं था। अंग्रेजों ने कानून बनाया था कि सारे कोढ़ी समाज से अलग रखे जाएं। सैमुएल तरनतारन और कोटगढ़ में ईसाई पादरियों की ओर से चलाई जा रही कोढ़ियों की बस्तियों में भी गए। जब कांगड़ा में भूकंप आया तो वहां लोगों की सेवा में जुट गए। भारतीय साधुओं का तपस्वी जीवन उन्हें भाया। वेश-भूषा हिंदू साधु की, फर्क बस इतना कि हाथ में ईसाइयों की मनकों वाली माला रोजरी और गर्दन पर लटका क्रॉस।

भारत से लगाव
    स्टोक्स ईसाई संन्यासी थे, लेकिन भारत से उनका जुड़ाव ऐसा था कि उन्होंने तय कर लिया कि यहां रहकर काम करना है तो भारतीय गृहस्थ की तरह रहना ठीक होगा। उन्होंने 1912 में ईसाई पादरियों की संस्था से किनारा कर एक ईसाई लड़की एग्नेस से विवाह किया। लड़की के पिता राजपूत परिवार से थे और कुछ साल पहले ही उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया था।

सेब की खेती
      स्टोक्स उन्हीं दिनों कोटगढ़ के पास एक जमीन खरीदना चाहते थे। उस जमीन की अंग्रेज मालकिन ने 30 हजार रुपये में 200 एकड़ का सौदा मंजूर किया। रुपयों का इंतजाम फिलाडेल्फिया में रह रहीं उनकी मां ने किया। स्टोक्स वहां फलों की खेती करना चाहते थे, खासतौर से सेब की। तब इलाके में सेब की खेती छोटे पैमाने पर होती थी। फल काफी खट्टे हुआ करते थे और बाजार में उनकी पूछ न थी। 1916 में जब स्टोक्स अमेरिका गए, तो वहां से सेब, नाशपाती और प्लम के पौधे ले आए। अपने घर के आसपास उन्होंने ये पौधे लगाए। इसके पहले भी जब वह अमेरिका गए थे तो कोटगढ़ की मिट्टी के सैंपल ले गए थे। काफी रिसर्च के बाद उन्होंने 5-6 तरह के सेब तैयार किए। इनमें रेड डेलीशियस और गोल्डन डेलीशियस काफी लोकप्रिय हुए।