इच्छा की पूर्ति हो जाती है, तब हम ईश्वर को प्रेम करना छोड़ देते हैंभक्ति रस में बहकर मूर्तिपूजकों ने ईश्वर को अतिरंजित कर दिया और खुद को पराधीन मानकर स्वयं को ईश्वर के हवाले कर दिया, तो अंतःकरण में सुधार अवरूद्ध हो गया।हमारा निर्माण 23 तत्वों, सूक्ष्म शरीर के 18 और स्थूल शरीर के पांच तत्वों से होता है। इसके बाद प्रकृति और पुरुष को मिलाकर कुल 25 तत्वों से संसार का निर्माण होता है।
श्रीमद भगवद गीता में मात्र एक और 26वां तत्व ‘ईश्वर’ को जोड़कर संसार की व्याख्या की गई है। ईश्वर अर्थात लीलाधारी सगुण ब्रह्म, जो अंतर्यामी है। सांख्य शास्त्र ने प्रकृति (स्वभाव) को पुरुष के अधीन माना है और स्वभाव को सुधारकर दुख निवारण का रास्ता बताया है। श्रीमद भगवद गीता ने प्रकृति के साथ-साथ पुरुष को भी ईश्वर के अधीन माना है।
निर्लिप्त कर्म और इंद्रीय संतुलन से अचल चित्त होकर भक्ति के जरिए ऐश्वर्य प्राप्ति का रास्ता बताया है। इस तरह श्रीमद भगवद गीता और सांख्यशास्त्र के निहितार्थ में कोई प्रयोजन भेद नहीं है।
आधा सच, झूठ से ज्यादा खतरनाक होता है। हिंदू धर्म को ही भारतीय दर्शन मान लेने के आधे सच के कारण इस भ्रम का निर्माण हुआ है।
प्रत्येक दूसरा हिंदू अवतार लेकर चमत्कार करने वाले ईश्वर को सशरीर मानता है और ईश्वर को ही धर्म मानता है, क्योंकि ईश्वर, सशरीर विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है। जबकि भारतीय दर्शन में ईश्वरवाद पर पर्याप्त शंका की गई है। ईश्वर की अतिरंजना या अवतार का फिल्मीकरण तत्व ज्ञान के लिए प्रेरित करने वाली हमारी, दिव्य अनभूति को पूर्वाग्रहित कर देता है।
जब हमारी इच्छा की पूर्ति हो जाती है, तब हम ईश्वर को प्रेम करना छोड़ देते हैं। इसके चलते भगवान कृष्ण की लीलाओं का हैरीपॉटर शो की तर्ज पर रूपांतरण किया जा रहा है। प्रतीक का अवलंबन करके उपासना करने वालों के सिवा अन्य (अप्रतीक) उपासकों को एक अमानव पुरुष ब्रह्मलोक तक ले जाता है।
यह अमानव पुरुष उपासकों को उनकी भावना के अनुसार, जिनके अन्तःकरण में लोकों में रमण करने के संस्कार होते हैं, उनको भोग संपन्न लोकों में छोड़ देते हैं और जिनके मन में वैसे भाव नहीं होते, उन्हें ब्रह्म लोक में पहुंचा देते हैं। इसलिए प्रतीकोपसाना तत्व ज्ञान में अवरोध है।
(लेखिका यूपी जागरण डॉट कॉम(A Largest Web News Channel of Incredible BHARAT))की विशेष संवाददाता एवं धार्मिक मामलो की जानकार है )