भगवान नटराज के पैरों के नीचे कौन दबा रहता है? बता रही है धार्मिक मामलो की जानकर मंजुलता शुक्ला

  हम सभी ने भगवान शिव के नटराज रूप को कई बार देखा है। किन्तु क्या आपने ध्यान दिया है कि नटराज की प्रतिमा के पैरों के नीचे एक दानव भी दबा रहता है..? 
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आम तौर पर देखने से हमारा ध्यान उस राक्षस की ओर नहीं जाता किन्तु नटराज की मूर्ति के दाहिने पैर के नीचे आपको वो दिख जाएगा।
क्या आपको पता है कि वास्तव में वो है कौन? आइये आज इस लेख में हम उस रहस्य्मयी दानव के विषय में जानते हैं।
सबसे पहले तो आपको बता दूँ कि भगवान नटराज के पैरों के नीचे जो दानव दबा रहता है उसका नाम है “अपस्मार“। उसका एक नाम “मूयालक” भी है।
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अपस्मार एक बौना दानव है जिसे अज्ञानता एवं विस्मृति का जनक बताया गया है। इसे रोग का प्रतिनिधि भी माना जाता है। आज भी मिर्गी के रोग को संस्कृत में अपस्मार ही कहते हैं।
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योग में “नटराजासन” नामक एक आसन है जिसे नियमित रूप से करने पर निश्चित रूप से मिर्गी के रोग से मुक्ति मिलती है।
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एक कथा के अनुसार अपस्मार एक बौना राक्षस था जो स्वयं को सर्वशक्तिशाली एवं दूसरों को हीन समझता था। स्कन्द पुराण में उसे अमर बताया गया है।
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उसे वरदान प्राप्त था कि वो अपनी शक्तियों से किसी की भी चेतना का हरण कर सकता था। उसे लापरवाही एवं मिर्गी के रोग का प्रतिनिधि भी माना गया है।
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अपनी इसी शक्ति के बल पर अपस्मार सभी को दुःख पहुँचता रहता था। उसी के प्रभाव के कारण व्यक्ति मिर्गी के रोग से ग्रसित हो जाते थे और बहुत कष्ट भोगते थे।
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अपनी इस शक्ति एवं अमरता के कारण उसे अभिमान हो गया कि उसे कोई परास्त नहीं कर सकता।
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एक बार अनेक ऋषि अपनी-अपनी पत्नियों के साथ हवन एवं साधना कर रहे थे। प्रभु की माया से उन्हें अपने त्याग और सिद्धियों पर अभिमान हो गया और उन्हें लगा कि संसार केवल उन्ही की सिद्धियों पर टिका है।
तभी भगवान शंकर और माता पार्वती भिक्षुक के वेश में वहाँ पधारे जिससे सभी स्त्रियाँ उन्हें प्रणाम करने के लिए यज्ञ छोड़ कर उठ गयी।
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इससे उन ऋषियों को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी सिद्धि से कई विषधर सर्पों को उत्पन्न किया और उन्हें भिक्षुक रुपी महादेव पर आक्रमण करने को कहा किन्तु भगवान शंकर ने सभी सर्पों का दलन कर दिया।
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तब उन ऋषियों ने वही उपस्थित अपस्मार को उनपर आक्रमण करने को कहा। स्कन्द पुराण में ऐसा भी वर्णित है कि उन्ही साधुओं ने अपनी सिद्धियों से ही अपस्मार का सृजन किया।
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अपस्मार ने दोनों पर आक्रमण किया और अपनी शक्ति से माता पार्वती को भ्रमित कर दिया और उनकी चेतना लुप्त कर दी जिससे माता अचेत हो गयी।
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ये देख कर भगवान शंकर अत्यंत क्रुद्ध हुए और उन्होंने १४ बार अपने डमरू का नाद किया। उस भीषण नाद को अपस्मार सहन नहीं कर पाया और भूमि पर गिर पड़ा।
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तत्पश्चात उन्होंने एक आलौकिक नटराज का रूप धारण किया और अपस्मार को अपने पैरों के नीचे दबा कर नृत्य करने लगे।
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नटराज रूप में भगवान शंकर ने एक पैर से उसे दबा कर तथा एक पैर उठाकर अपस्मार की सभी शक्तियों का दलन कर दिया और स्वयं संतुलित हो स्थिर हो गए। उनकी यही मुद्रा “अंजलि मुद्रा” कहलाई।
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उन्होंने उसका वध इसीलिए नहीं किया क्यूंकि एक तो वो अमर था और दूसरे उसके मरने पर संसार से उपेक्षा का लोप हो जाता जिससे किसी भी विद्या को प्राप्त करना अत्यंत सरल हो जाता। इससे विद्यार्थियों में विद्या को प्राप्त करने के प्रति सम्मान समाप्त हो जाता।
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जब उन साधुओं भगवान शंकर का वो रूप देखा तो उनका अभिमान समाप्त हो गया और वे बारम्बार उनकी स्तुति करने लगे।
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उन्होंने उसी प्रकार अपस्मार को निष्क्रिय रखने की प्रार्थना की ताकि भविष्य में संसार में कोई उसकी शक्तियों के प्रभाव में ना आये।
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नटराज रूप में महादेव ने जो १४ बार अपने डमरू का नाद किया था उसे ही आधार मान कर महर्षि पाणिनि ने १४ सूत्रों वाले रूद्राष्टाध्यायी “माहेश्वर सूत्र” की रचना की।
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एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान शंकर के मन में एक आलौकिक नृत्य करने की इच्छा हुई। उसे देखने के लिए सभी देवता, यक्ष, ऋषि, गन्धर्व इत्यादि कैलाश पर एकत्र हुए।
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स्वयं महाकाली ने उस सभा की अध्यक्षता की। देवी सरस्वती तन्मयता से अपनी वीणा बजाने लगी, भगवान विष्णु मृदंग बजाने लगे, माता लक्ष्मी गायन करने लगी, परमपिता ब्रह्मा हाथ से ताल देने लगे, इंद्र मुरली बजाने लगे एवं अन्य सभी देवताओं ने अनेक वाद्ययंत्रों से लयबद्ध स्वर उत्पन किया।
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तब महादेव ने नटराज का रूप धर कर ऐसा अद्भुत नृत्य किया जैसा आज तक किसी ने नहीं देखा था। उस मनोहारी नृत्य को देख कर सभी अपनी सुध-बुध खो बैठे।
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जब नृत्य समाप्त हुआ तो सभी ने एक स्वर में महादेव को साधुवाद दिया। महाकाली तो इतनी प्रसन्न हुई कि उन्होंने कहा – “प्रभु! आपके इस नृत्य से मैं इतनी प्रसन्न हूँ कि मुझे आपको वर देने की इच्छा हुई है। अतः आप मुझसे कोई वर मांग लीजिये।”
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तब महादेव ने कहा – “देवी! जिस प्रकार आप सभी देवगण मेरे इस नृत्य से प्रसन्न हो रहे हैं उसी प्रकार पृथ्वी के सभी प्राणी भी हों, यही मेरी इच्छा है। अब मैं तांडव से विरत होकर केवल “रास” करना चाहता हूं।”
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ये सुनकर महाकाली ने सभी देवताओं को पृथ्वी पर अवतार लेने का आदेश दिया और स्वयं श्रीकृष्ण का अवतार लेकर वृन्दावन पधारी।
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भगवान शंकर ने राधा का अवतार लिया और फिर दोनों ने मिलकर देवदुर्लभ “महारास” किया जिससे सभी पृथ्वी वासी धन्य गए। यही कारण है कि देवी भागवत में श्रीकृष्ण को माता काली का अवतार बताया गया है।
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तो इस प्रकार अपस्मार को अपने पैरों के नीचे दबाये अभय मुद्रा में भगवान शंकर का नटराज स्वरुप ये शिक्षा देता है कि यदि हम चाहें तो अपने किसी भी दोष को स्वयं संतुलित कर उसका दलन कर सकते हैं।
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महादेव का नटराज स्वरुप पाप के दलन का प्रतीक तो है ही किन्तु उसके साथ-साथ आत्मसंयम एवं इच्छाशक्ति का भी प्रतीक है।
जय श्री नटराजन
 देखे आपके आसपास अगर कोई खंडित मूर्ति प्रतिमा अथवा कैलेंडर पड़ा हुआ है तो उसे ससम्मान उठाकर उसका विधिवत विसर्जन करें यह हम सभी का धर्म ही नहीं प्रथम कर्तव्य है अनजाने में अपने आराध्य का अपमान ना हो इसका प्रयास हम सभी को करना चाहिए*