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मन की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण ही योग है

मन की चंचलताओं या क्रियाओं पर स्वामित्व स्थापन, नियंत्रण या उनको हटाना योग है। वैदिक योग दर्शन के सूत्रकार महान मनोवैज्ञानिक महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में योग की परिभाषा है – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। योग शब्द युज् (जोड़ना या मिलाना) धातु से निष्पन्न हुआ है। योग के बीज ऋ ग्वेद में भी पाए जाते हैं। ऋ ग्वेद में आया है – विज्ञलोग, पुरोहित एवं यजमान अपने मनों को केंद्रित करते हैं।

मंजूलता शुक्ला

योग शब्द कई अर्थों में ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है। आचार्य सायण ने योग का अर्थ जो पहले से प्राप्त न हो, उसे प्राप्त करने के रूप में लिया है। योग शब्द बहुधा क्षेम के साथ आया है या सामासिक रूप में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में प्रयुक्त योग शब्द के अर्थ तथा कुछ उपनिषदों एवं परवर्ती संस्कृत-ग्रंथों में प्रयुक्त योग के अर्थ में बहुत लंबे काल की दूरी पड़ जाती है।

साधन हैं अभ्यास और वैराग्य

मन की विभिन्न अवस्थाएं पांच हैं – क्षिप्त, मुग्ध (मूढ), विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध। मन की चंचलता पर अधिकार प्राप्त करने के साधन हैं अभ्यास एवं वैराग्य, जो एक साथ किए जाते हैं। अभ्यास वह यत्न है जिसके द्वारा वृत्तियों पर नियंत्रण करके मन को दीर्घकाल के लिए निरंतर एवं इच्छापूर्वक शांतिमय प्रवाह दिया जाता है। दूसरा यत्न वैराग्य है जो देखे हुए पदार्थों (नारी, भोजन, पेय, उच्च पदादि) पर स्वामित्व-स्थापन की चेतना (उनकी तृष्णा से छुटकारा पाना) तथा उन पदार्थों (स्वर्ग, वैदे, प्रकृतिलयत्वादि) से विरक्ति की भावना है।

योगसूत्र के चार पाद

पतंजलि का लिखा योगसूत्र चार पादों में विभाजित है – समाधि, साधना, विभूति एवं कैवल्य, जिसमें कुल 195 सूत्र हैं। योगसूत्र का प्रथम पाद समाधि एवं मुक्ति के विवेचन के साथ समाप्त होता है। यह उस व्यक्ति के लिए योग का वर्णन करता है, जो ध्यान में सफल होता है। द्वितीय पाद उस व्यक्ति के लिए है, जिसका मन ध्यान में प्रयुक्त नहीं होता प्रत्युत चंचल रहता है, विमोहित रहता है या व्युत्थित (संक्षुब्ध या विक्षिप्त) रहता है और जो विधि को सीखने की इच्छा रखता है।

     यह पाद आज के भारतीय एवं पश्चिमी विद्यार्थियों के लिए चार पादों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और इसने ही सनातन धर्मशास्त्र के ग्रंथों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। योग की मौलिक भावना यह है कि आत्मा वास्तविक, नित्य एवं शुद्ध होता है किंतु यह भौतिक विश्व में आसक्त रहता है और यद्यपि यह नित्य है तथापि अनित्य अर्थात नाशवान पदार्थों के पीछे पड़ा रहता है। लक्ष्य स्थापित (अविद्या एवं गुणों से आत्मा को पृथक रखकर कैवल्य प्राप्त करना तथा आत्मा के अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति) हो जाने के उपरांत योगसूत्र उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक दृढ़ अनुशासन की व्यवस्था करता है।

योगी के नियम

योगी को क्या खाना चाहिए, क्या नहीं खाना चाहिए तथा उसे कहां पर योगाभ्यास करना चाहिए, इस विषय में बहुत-से नियम प्रतिपादित हैं। महाभारत में आया है कि योगी को चावल के छोटे-छोटे कण पकाकर या पिण्याक (खली) खाना चाहिए। तैलयुक्त पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। यदि वह यावक (जौ के दलिया) पर ही रहे तब भी बलवान रहेगा। उसे जल एवं दूध मिलाकर पीना चाहिए और गुफाओं में निवास करना चाहिए। मार्कंडेयपुराण में आया है कि योगी को सूने स्थलों, वनों, गुहाओं में ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।

देवलधर्मसूत्र में व्यवस्था है कि योगी को योगाभ्यास मंदिर, खाली घर, गिरिकंदरा, नदी-पुलिन (नदी की बालुका-भूमि), गुफाओं या वनों तथा भयरहित पवित्र एवं शुद्ध स्थल में करना चाहिए। हठयोगप्रदीपिका में भक्ष्याभक्ष्य का उल्लेख है। गोरक्षशतक में व्यवस्था है कि योगी को कटु, अम्ल, लवणयुक्त भोजन का त्याग करना चाहिए। उसे केवल दुग्ध भोजन पर रहना चाहिए।

प्राण का नियंत्रण है प्राणायाम

प्राणायाम का शाब्दिक रूप में अर्थ है – प्राण का नियन्त्रण या विराम। याज्ञवल्क्यस्मृति में इसके दो अन्य पर्याय हैं—प्राणसंयम एवं प्राणसंरोध। प्राणायाम में महत्त्वपूर्ण विवादवस्तु है कि यहां प्राण का अभिप्राय क्या है? यह शब्द संस्कृत की अन्न (सांस लेना) धातु से निष्पन्न है और उसमें प्र उपसर्ग पहले जोड़ दिया गया है। यह क्रिया एवं इसके रूप ऋ ग्वेद में भी हैं। ऋग्वेद में कई स्थानों पर प्राण का अर्थ केवल सांस लेना है।

ओम है ईश्वर का वाचक

योगसूत्र का दृढतापूर्वक कथन है कि ओम् (जिसे प्रणव की संज्ञा है) परमात्मा की भावना का द्योतक है और इसके जप तथा मन में इसके अर्थ को रखने से ध्यान बंध जाता है। यह व्यवस्थित है कि उत्तम सिद्धि की प्राप्ति योग के छह अंगों (प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति एवं समाधि) से प्राप्त ज्ञान के अमृत-पान से ही हो सकती है।

योग में 84 आसन

योगसूत्र ने किसी आसन का नाम नहीं लिया है तथापि व्यासभाष्य ने इनके नाम लिए हैं। कालिदास के रघुवंश में वीरासन का उल्लेख है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने कहा है कि पद्मासन एवं अन्य विशिष्ट आसनों का उद्घोष योगशास्त्र में हुआ है। हठयोगप्रदीपिका के अनुसार आसन हठयोग का प्रथम अंग है। शिव ने 84 आसनों की चर्चा की है, जिनमें सिद्ध, पद्म, सिंह एवं भद्र नामक चार आसन अत्यंत सारभृत हैं। इसने सिद्धासन को सर्वश्रेष्ठ आसन माना है। शिवसंहिता एवं घेरंडसंहिता में आया है कि आसन 84 हैं, जिनमें सिद्धासन एवं पद्मासन सर्वोत्तम हैं।

आसन के दो प्रकार

आसनों के दो प्रकार हैं, जिनमें एक प्राणायाम, ध्यान एवं एकाग्रता के लिए उपयोगी है, यथा – पद्म, सिद्ध एवं स्वस्तिक। आसनों का दूसरा प्रकार शारीरिक रोगों के निवारण एवं स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होता है किन्तु इनमें अधिकांश में विभिन्न शारीरिक आयासों की आवश्यकता होती है और इन आसनों द्वारा उपस्थापित अंतिम शरीर-दशा गंभीर ध्यान को असंभव नहीं तो कठिन अवश्य बना देती है – जैसे शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, विपरीतकरणी, मयूरासन।

(लेखिका यूपी जागरण डॉट कॉम(upjagran.com , A largest web news channel of Incredible BHARAT ) की विशेष संवाददाता एवं धार्मिक मामलो की जानकार हैं)

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