इसलिए क्योंकि अगर ये बचेगा तो उसके साथ बचेगी ‘प्रकृति‘, उसके साथ बचेगा अरण्य, उसके साथ बचेंगे ईश्वर की बनाई हुई सारी कृतियाँ जो जीव-जंतु-जलचर, नभचर के रूप में हमारे चारों ओर हैं।
प्रश्न है इस हिन्दू धर्म को बचाएगा कौन? कौन इस हिन्दू धर्म के शाश्वत मूल्यों के साथ जियेगा? कौन उन परंपराओं का रक्षण करेगा जो हमारे महान पूर्वजों की है?
दूसरों पर टिप्पणी का अधिकार मुझे नहीं है इसलिए केवल अपनी बात करते हुए मैं स्वयं से यह प्रश्न पूछता हूँ कि क्या मैं हिन्दू धर्म को बचा सकूँगा?
पहले ग़लतफ़हमी थी कि मैं बहुत बड़ा ये हूँ, वो हूँ …अच्छा लिख लेता हूँ……कुछ लोग प्रभावित हो जाते हैं पर एक घटना ने ये सब ग़लतफ़हमी ख़त्म कर दी।
एक बार मायापुर, बंगाल के “चंद्रोदय इस्कॉन मंदिर” गया था।
गर्मी के दिन थे और मैं दोपहर में उसके परिसर में टहल रहा था तभी देखा कि प्यास से व्याकुल एक सांड बड़ी बेचैनी से हाँफ रहा है। उस परिसर में मेरे अलावा दर्जनों हिन्दू ही थे पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा।
अचानक एक विदेशी महिला बड़ी तेज़ी से आगे आई और एक दुकान से उसने बिसलेरी की दो लीटर वाली पानी बोतल उठा ली, उसे खोला और सांड के गले को पकड़ कर उसके मुँह में पूरा पानी डाल दिया, विशालकाय सांड को उससे कोई फर्क नहीं पड़ा होगा ये बात शायद वो महिला भी जानती थी इसलिए उसने तुरंत एक और बोतल लिया है उसे पिलाया और फिर तीसरा बोतल भी. अब सांड तृप्त था तो महिला ने मुस्कुराते हुए उसके गाल थपथपाए और आसपास खड़े किसी की भी प्रशंसा या ताली की प्रतीक्षा किये बिना आगे बढ़ गई।
मैं स्तंभित रहा गया।
मैं जन्मना हिन्दू था पर मैं ऐसा कुछ करना तो दूर ऐसे करने की सोच भी नहीं सका। अगर सांड की जगह प्यास से हाँफ रही गाय भी होती तो भी मैं अधिक से अधिक किसी बाल्टी में नल से पानी निकालकर उसे पिलाता पर 3 बोतल बिसलेरी खरीदकर उसे पिलाना तो मेरी कल्पना में नहीं आता। यहाँ तो गाय नहीं सांड की बात थी।
वहां जितने हिन्दू गये थे लगभग सब घूमने की दृष्टि से जबकि वहां जितने विदेशी आये थे वो सब भक्ति भाव से आये हुए थे। वहां जितने हिन्दू थे सब पैंट-शर्ट-जींस में पर जितने विदेशी थे सब धोती, कुर्ता और वैष्णव तिलक में। वहां जितने हिन्दू आये थे उनके गले में फैशनेबल चेन या ऐसी ही कोई माला पर जितने विदेशी थे उनके गले में तुलसी माला। वहां जो गोशाला में जाने वाले हिन्दू थे वो जाकर हृष्ट-पुष्ट गाय देखते थे मानो कोई म्यूजियम में आये हैं जबकि विदेशी वहीं जमीन पर बैठकर उन गायों और उनके बच्चों के पाँव दबाने बैठ जाते थे। हम ढेर होशियार बनकर उन विदेशियों को देखकर अंग्रेजी छांटते थे जबकि वो हमसे शुद्ध संस्कृत या हिन्दी या बांग्ला में बात कर रहे थे। हिन्दू अपने बच्चों को कोको-कोला पिला रहे थे जबकि वो अपने बच्चे को कन्हैया की तरह छाछ और माखन….….
पहले ईश्वर से शिकायत थी कि कृष्ण गीता में आने का वादा करके भी क्यों नहीं आते हैं? अब शिकायत नहीं है क्योंकि मुझे समझ में आ गया कि कृष्ण के पुनः आने की दो शर्तें हैं जिसमें पहली शर्त हम कभी पूरा नहीं सकते। “योगेश्वर” ने कहा था :- परित्राणाय साधूनां ……यानि आने की पहली शर्त है कि हिन्दू समाज साधु हो, निर्मल हो, निष्कलंक हो, धर्म को जीने वाला हो……
पर क्या हम ऐसे हैं? कम से कम मैं तो नहीं ही हूँ………….क्षुद्र अहंकार, अपनों को नीचा दिखाना, जाति-भाषा-क्षेत्र या अन्यान्य चीजों को लेकर ओछापन कहीं न कहीं हम सबके व्यतित्व में है, व्यवहार में है……हम जपते तो राम की हैं पर करते रावण की हैं। इसलिए कृष्ण कम से कम हम जैसे ढोंगियों और पाखंडियों के लिए तो नहीं आने वाले…………
हिन्दू धर्म दुनिया में अकेला है जो ये कहता है कि ‘ईश्वर’ को पूजना उनके जैसा बन जाना है…..शिवो भूत्वा शिवं यजेत अर्थात शिव बनकर ही शिव की पूजा करें।
हिन्दू धर्म को बचायेंगे वो जो जन्मना हिन्दू नहीं हैं……जो by birth नहीं by choice हिन्दू हैं। अगर कल को कृष्ण आते भी हैं तो इन्हीं लोगों के उद्धार के लिए आयेंगे।