
घाटी ने अपनी खामोशी आखिर तोड़ ही दी. कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने, मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियों पर ताबड़तोड़ कार्रवाई (तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी सहित) और सियासी गतिविधियों पर शिकंजा कसने के एक साल बाद 22 अगस्त को इनमें से छह पार्टियों ने एक बार फिर 4 अगस्त 2019 की ‘गुपकर घोषणा’ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की तस्दीक की. जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के एक दिन पहले इस घोषणा पर दस्तखत किए गए थे, तब राज्य का राजनैतिक दर्जा घटाए जाने के कयास लगाए जा रहे थे और इन पार्टियों ने साथ आकर इसे रोकने का संकल्प लिया था. दस्तखत करने वाली पार्टियों में नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी), पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), कांग्रेस, पीपल्स कॉन्फ्रेंस, सीपीआइ(एम) और अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस शामिल थीं. संयुक्त वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि अब से तमाम राजनैतिक गतिविधियां ”जेऐंडके का 4 अगस्त 2019 को मौजूद दर्जा लौटाने के पवित्र लक्ष्य की खातिर और उसकी दिशा में” होंगी.
पिछले साल 5 अगस्त की घटनाओं से कुछ दिन पहले सैनिकों की जबरदस्त लामबंदी कर दी गई, एक के बाद एक एडवायजरी और फरमान जारी किए गए, सालाना अमरनाथ यात्रा बीच में रद्द कर दी गई और जेऐंडके से सैलानियों को रुखसत कर दिया गया. इससे लोगों में फिक्र का माहौल तारी हो गया और जबरदस्त अफवाहें फैलने लगी थीं. इसने 4 अगस्त को सियासी पार्टियों को आनन-फानन इकट्ठा होने के लिए मजबूर कर दिया. बैठक गुपकर रोड के भारी सुरक्षा से घिरे इलाके में (जहां दो और पूर्व मुख्यमंत्रियों उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के घर भी हैं) एनसी अध्यक्ष और श्रीनगर के सांसद फारूक अब्दुल्ला के घर पर हुई. इससे जो संकल्प निकलकर आया, उसे ‘गुपकर घोषणा’ कहा गया. अब 22 अगस्त के संकल्प ने उस प्रतिबद्धता की तस्दीक की और कहा ”कि हम गुपकर घोषणा की बातों से बंधे हैं… और अनुच्छेद 370 और 35ए, जेऐंडके के संविधान और राज्य की बहाली की खातिर पुरजोर संघर्ष करने के लिए प्रतिबद्ध हैं… कोई भी विभाजन हमें नामंजूर है
इस संकल्प ने सरकार के साथ कई बाहर के लोगों को भी हैरत में डाल दिया. इसे जारी करने से एक दिन पहले फारूक ने, जो अब 82 वर्ष के हैं, रिहा होने के बाद अपने पहले टीवी इंटरव्यू (इंडिया टुडे सहित) दिए. वे बेहद सख्त जन सुरक्षा कानून के तहत नजरबंदी से मार्च में रिहा हुए थे. मगर अब भी किसी को भनक तक नहीं थी कि क्या होने वाला है. पर्दे के पीछे एनसी के नेता और अनंतनाग से सांसद न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) हसनैन मसूदी और पीपल्स कॉन्फ्रेंस के मुखिया सज्जाद लोन संकल्प का मसौदा तैयार करने के जुटे थे. दोनों श्रीनगर के एक ही इलाके में रहते हैं और उनकी बैठकों पर शायद किसी का ध्यान नहीं गया. पूरी कवायद को बेहद गोपनीय रखा गया और केवल पार्टियों के शीर्ष नेताओं को इसकी जानकारी थी. इनमें पीडीपी की प्रमुख महबूबा मुफ्ती भी थीं, जो अब भी नजरबंद हैं.
जेऐंडके हाइकोर्ट के पूर्व जज मसूदी कहते हैं कि घोषणा पर दस्तखत करने वाली सभी शुरुआती पार्टियां फिर प्रतिबद्धता जाहिर करने के लिए एकदम तैयार थीं. वे कहते हैं, ”हमारी उर्दू जबान, हमारा संविधान और झंडा सब चले गए. हम चाहते हैं कि भारत सरकार ने 5 अगस्त को जो किया, उसे पलटे. अगर किसी मामले में बदलाव की जरूरत है तो हम हमेशा उस पर बात कर सकते हैं. मगर एकतरफा ढंग से हमें बांट देना और म्यूनिसिपैलिटी में बदल देना हमें नामंजूर है.”
अलबत्ता कुछ लोग मानते हैं कि जन दबाव और नई दिल्ली के कठोर रवैए का मुकाबला करने के लिए संयुक्त रणनीति में नए सिरे से जान फूंकी गई है. वहीं, कम से कम कुछ नेता हैं जो अपनी हाल की नजरबंदी या कैद के बाद केंद्र के मंसूबों के मुताबिक चलने को तैयार हैं. बताया जाता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस में उमर अब्दुल्ला के नजदीकी कुछ नेता अपने भविष्य को लेकर कम उत्साहित रह गए हैं. पीडीपी में भी यही हालत है. 2018 में भाजपा के साथ अपना गठबंधन खत्म करने के बाद वह पहले ही दोफाड़ हो चुकी है. केंद्र ने एक के बाद एक जो ध्रुवीकरण करने वाले फैसले लिए, उन्होंने ”सुलह और मेलमिलाप” को रोक रखा था. इन फैसलों में डोमिसाइल या अधिवास कानून, परिसीमन की कवायद और सशस्त्र बलों के इस्तेमाल के लिए ”सामरिक क्षेत्रों” की अधिसूचना शामिल थे. इस ”हमले” को मुस्लिम-बहुसंख्यक इलाकों की जनसांख्यिकी बदलने के कदम के तौर पर देखा गया.
एनसी और पीडीपी सरीखी मुख्यधारा की पार्टियों ने अपनी राजनीति स्वायत्तता के इर्द-गिर्द बुनी है और इससे दूर हटने पर कश्मीर की सियासत में उनकी प्रासंगिकता को लेकर सवाल खड़े हो जाएंगे. व्हाट हैपंड टू गवर्नेंस इन कश्मीर? के लेखक प्रो. एजाज अशरफ वानी कहते हैं, ”यह सामूहिक कदम उनके भविष्य और वजूद की खातिर है. उस फैसले ने राज्य का दर्जा ही नहीं बदला बल्कि मुख्यधारा की राजनीति का परिदृश्य भी बदल दिया. सवाल यह है: वे जो चाहते हैं उसे हासिल करने के लिए क्या एकजुट लड़ाई को कायम रख सकते हैं?” यही नहीं, क्या वे सत्ता से बाहर रहकर ऐसा करना गवारा कर सकते हैं?
तो राजनैतिक प्रतिरोध का रोडमैप क्या है? फिलहाल पार्टियां एकराय हैं कि जेऐंडके पुनर्गठन कानून के जरिए किया गया कोई भी बदलाव उन्हें मंजूर नहीं है. परिसीमन आयोग को ठुकराना इसी का हिस्सा था. मई में तीन सांसदों, बड़े अब्दुल्ला, मसूदी और अकबर लोन (सभी एनसी) को मई में परिसीमन आयोग में नामजद किया गया था, मगर उन्होंने इसका हिस्सा बनने से इनकार कर दिया. जेऐंडके अधिवास कानून सुलह की राह का एक और रोड़ा है. पार्टियां पहले ही इस पर अपनी असहमति दर्ज कर चुकी हैं. भीतरी तौर पर उनका कहना है कि वे नागरिकता अधिकारों पर नई दिल्ली के साथ बातचीत करने को तैयार हैं. मगर ऐसा तभी हो सकता है जब संवैधानिक बदलावों को पलटा जाए और राज्य विधानसभा को लोगों की नुमाइंदगी की उसकी वाजिब भूमिका निभाने दी जाए. गुमनाम रहने के आग्रह के साथ एक शीर्ष राजनैतिक नेता कहते हैं, ”पिछले साल के फैसले को चुनौती देने के लिए हम अपने तरकश में मौजूद हर सियासी हथियार के साथ आगे बढ़ेंगे. इस वक्त तो जेल भी एक सियासी हथियार है.”
आने वाले हफ्तों में कुछ और राजनैतिक तथा गैर-राजनैतिक धड़े गुपकर समूह के साथ एकजुटता जाहिर कर सकते हैं. इसके लिए, सितंबर के दूसरे हक्रते में शुरू होने वाले संसद के मॉनसून सत्र से पहले एक बैठक होने की संभावना है, बशर्ते सरकार होने दे. घोषणा की पहले से जानकारी रखने वाले एक नेता कहते हैं, ”सभाओं पर पाबंदी हटा लिए जाने के बाद हम रणनीति बनाएंगे. फिलहाल हम लोगों से कहना चाहते हैं कि हम अपनी संवैधानिक गारंटियां, अपनी जमीन और नौकरी के अधिकार बहाल करवाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.”
नए सर्वसम्मत धड़े की वजह से जेऐंडके पार्टी सरीखे नवजात राजनैतिक दलों की सियासी जगह सिकुड़ जाएगी. अफवाहें हैं कि अपनी पार्टी को केंद्र की भाजपा का समर्थन हासिल है. भाजपा के अलावा यह अकेली सियासी पार्टी है जिसने गुपकर घोषणा का समर्थन नहीं किया है. पूर्व अफसरशाह शाह फैसल की बनाई राजनैतिक पार्टी जेऐंडके पीपल्स मूवमेंट ने पिछले साल गुपकर घोषणा पर दस्तखत किए थे और उसका कहना है कि वह घोषणा का समर्थन करती है. (फैसल ने इसी महीने राजनीति छोड़ दी.)
इस बीच, भाजपा जेऐंडके में अपनी पटकथा के मुताबिक चलने पर अडिग दिखती है. पार्टी उपाध्यक्ष और राज्य प्रभारी अविनाश राय खन्ना कहते हैं कि अनुच्छेद 370 बहाल करने का सवाल ही नहीं उठता. वे कहते हैं, ”केवल राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा. इस संकल्प का कोई असर नहीं होगा क्योंकि लोग उन्हें सुन ही नहीं रहे हैं. उन्होंने 370 हटाए जाने के पहले भी धमकियां दी थीं… ये (परिवार संचालित) पार्टियां केवल अपने हितों को लेकर चिंतित हैं.” वे कहते हैं कि केंद्र ने विकास के एजेंडे से लोगों का भरोसा जीता है और यह इन पार्टियों के लिए अच्छा शकुन नहीं है. वे ‘गांव की तरफ वापसी’ सरीखे केंद्रीय कार्यक्रमों, केंद्रीय मंत्रियों के दौरों और नए उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की लोगों के साथ बैठकों का जिक्र करते हैं और इन्हें घाटी में अमन-चैन की वापसी का सबूत बताते हैं.