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पुण्य-तिथि विशेष:स्वाधीनता को समर्पित ऋषिकेश लट्टा

3 फरवरी/पुण्य-तिथि
स्वाधीनता को समर्पित ऋषिकेश लट्टा

देश की स्वाधीनता के लिए यों तो हर राज्य ने संघर्ष किया; पर इनमें पंजाब और बंगाल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद जब देश से बाहर चले गये, तो वहां क्रांतिकारी दल का काम ऋषिकेश लट्टा नामक युवक ने संभाल लिया। छात्रों पर उसका बहुत प्रभाव था। पूरे राज्य में घूमकर वह नये लोगों को दल से जोड़ रहा था। अतः पुलिस पूरी सरगर्मी से उसे तलाश करने लगी।

ऋषिकेश के पिता चौधरी संगतराम होशियारपुर जिले के धोशारा गांव के एक प्रतिष्ठित और सम्पन्न व्यक्ति थे। वे अपने पुत्र को उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे; पर लाहौर के डी.ए.वी विद्यालय में पढ़ते समय ऋषिकेश का संपर्क सरदार अजीत सिंह से हो गया और फिर वह उनके रंग में ही रंग गया।

उसकी गतिविधियां बढ़ने पर पुलिस उसके पीछे लग गयी। ऐसे में उसके दल ने उसे कुछ समय के लिए विदेश चले जाने को कहा। अतः अपने दल का नेतृत्व प्रेमपाल को सौंपकर वह भूमिगत होकर 1906 में ईरान के तेहरान नगर में पहुंच गये। वहां पहुंचकर वह ईरानी युवकों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काने लगे। इस पर वहां तैनात अंग्रेज रेजिडेण्ट ने उनकी गिरफ्तारी पर 20,000 रु0 का पुरस्कार घोषित कर दिया। अतः ऋषिकेश को एक बार फिर भूमिगत होना पड़ा; पर तब तक उन्होंने ईरानी क्रांतिकारी युवकों का एक दल बनाकर उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध सक्रिय कर दिया।

ईरानी शासन का ऋषिकेश के प्रति बहुत सद्भाव था। अतः शासन ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर उच्च अध्ययन के लिए यूरोप भेज दिया। ऋषिकेश ने इसका लाभ उठाकर रूस, आस्ट्रिया, हंगरी, फ्रांस, जर्मनी, हालैंड, रूमानिया एवं तुर्की का भ्रमण किया। वे जहां भी गये, वहां भारतीय युवकों को संगठित कर क्रांति की लपटें फैलाते गये। चूंकि वे ईरान शासन के खर्च से घूम रहे थे, अतः सभी जगह ईरानी दूतावासों से उन्हें सहायता मिलती थी। इस्ताम्बूल में ईरान के राजदूत की सहायता से वे अमरीका पहुंच गये।

चुप बैठना ऋषिकेश के स्वभाव में नहीं था। अमरीका के केलीफोर्निया नगर में जब भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों ने युगान्तर आश्रम और गदर पार्टी स्थापित की, तो वह भी उसके संस्थापकों में थे। प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर ऋषिकेश तथा उसके मित्र सक्रिय हो उठे। वे इस समय का लाभ उठाकर ब्रिटेन को अंदर तथा बाहर दोनों ओर से चोट पहुंचाना चाहते थे।

अतः ऋषिकेश और उसके मित्रों ने इस दौरान बड़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र और धन भारत भेजा। इसके साथ ही वे अमरीका में ब्रिटेन के विरुद्ध तथा भारत के पक्ष में वातावरण बनाने लगे। विदेशों में रह रहे कई क्रांतिकारी एवं स्वाधीनता सेनानी इस समय का लाभ उठाने के लिए भारत लौट आये। ऋषिकेश ने भी वैधानिक रूप से भारत आना चाहा; पर शासन ने उसे अनुमति नहीं दी।

पर ऋषिकेश हार मानने वाले व्यक्तियों में नहीं थे। वह जर्मनी के बर्लिन शहर में पहुंचकर वहां काम कर रहे भारतीय क्रांतिकारियों की टोली में शामिल हो गये। बर्लिन में उन्होंने एक जर्मन युवती से विवाह भी कर लिया; पर इस युद्ध में जर्मनी की पराजय से भारत की स्वाधीनता का स्वप्न टूट गया। अतः ऋषिकेश एक बार फिर ईरान के तेहरान नगर में जा पहुंचे।

जीवन भर संघर्षरत रहने वाले इस क्रांतिवीर का तीन फरवरी, 1930 को तेहरान में ही देहांत हुआ। ऋषिकेश लट्टा के जीवन का प्रत्येक क्षण भारत की स्वाधीनता को समर्पित था।

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